जगत के जंजाल सारे
व्यूह सा रचकर खड़े हों
परिस्थितियों के समंदर
पंथ में फैले पड़े हों
मार्ग रोके सहस गिरिवर
बिछे हों शत सहस कानन
प्रलय के बादल घिरे या
सिंह घेरे फाड़ आनन
धैर्य की तलवार लेकर
पथिक तू बढ़ता चलाचल
मौन की दृढ ढाल लेकर
पथिक तू बढ़ता चलाचल
पहुंचना है तुझे सूरज
जहाँ से होता उदय है
लक्ष्य तेरा शुभ्र प्राची
जहाँ तम का पूर्ण लय है
तोड़ तम की घोर कारा
पथिक तू बढ़ता चला चल
बुद्धि मणि की रौशनी में
पथिक तू बढ़ता चला चल
नहीं रुकना मार्ग में जब
तुझे वनपरियां बुलाये
फस न जाना राग में जब
प्रेम का मृदु गीत गायें
देख मत उत्तर या दक्षिण
मार्ग पर सीधा चला चल
उदयगिरि के पार जाना
पथिक तू बढ़ता चला चल
स्वर्ण सिक्के खनखनाती
मिले मग में लोभ कुटिला
साथ में परिचारिकायें
अहम्, निर्दयता सुजटिला
लोकभोगों में उलझकर
महल उसके रुक न जाना
तुझे जाना दूर तू बढ़ता चला चल
दिन गया है सांझ आयी तू चला चल
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