रविवार, 3 नवंबर 2019

खुशियों की मृग तृष्णा लेकर भाग रहा है जीव निरंतर


खुशियों की मृग तृष्णा लेकर
भाग रहा है जीव निरंतर
खोज रहा कस्तूरी वन में
भटक रहा है स्वत्व भूलकर

जोड़ जाड़ के मिट्टी कूड़ा
बांधे भारी एक गठरिया
चला जा रहा ढोये उसको
सिर पर रक्खे कर्म मुटरिया

अभिलाषा के कीड़े कितने
अपने सिर में पाल रखे हैं
चिंताओं के कितने फंदे
स्वयं गले में डाल रखे हैं

अहम लोभ की तलबारों से
सब सम्बन्ध क़त्ल कर डाले
कुटिल क्रोध की दावानल से
सुख के कुञ्ज भष्म कर डाले

शुद्ध स्वर्ण सा जगमग तन था
बच्चों जैसा पावन मन था
तितली में तक अनुपम सुख था
सभी तरफ तो अपनापन था

अब नकली मुस्कान सजाये
दंभ द्वेष मन में दफनाये
ढूंढ रहा है सच्चा साथी
मित्रों जैसा वेश बनाये

अगर अभी भी जीव फेंक दे
जंजालों की जटिल गठरिया
अहम लोभ को त्याग बुझा दे
क्रोध अनल की हर फुलझड़िया

फिर से प्रेम मेघ बरसेंगे
सुख का उपवन खिल जायेगा
जीवन की यात्रा में फिर से
मानव सच्चा सुख पायेगा

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