माघ मास की कठिन निशा तो
कट जाती है जैसे तैसे
लेकिन मीत शीत जीवन की
ठिठुरन भरी कटे अब कैसे
आत्मवंचना के कोहरे में
ढका उजाला ज्ञान अक्ष का
स्वार्थ के पाले में सूखा
पत्ता पत्ता भाव बृक्ष का
ख़त्म हुई रिश्तों की गर्मी
अहम् लोभ की पुरवाई में
प्रीती रीति सब नष्ट हो गई
अभिवादन की महंगाई में
चलो मीत कुछ जतन करें
आये फिर जीवन में वसंत
रिश्तों की लता पल्लवित हो
हो प्रेमवल्लरी पुष्पवंत
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