रविवार, 3 नवंबर 2019

मैं नहीं युग का विदूषक



मैं नहीं युग का विदूषक जो विनय के गीत गाऊँ
जो तुम्हे अच्छा लगे बस चुटकुला वैसा सुनाऊं
चाहता हूँ मैं जगाना सुषुप्तों को तूर्य लेकर
पड़े हैं सोये हुए जो परम विस्मृति भांग पीकर
देखकर अन्याय जो नर मौन होना नहीं सीखा
भिड़ा खाली हाँथ चाहें शत्रु हो रावण सरीखा
उस पुरुष की वीरता के गीत गाऊंगा
भालपर उसके विजय टीका लगाऊंगा
लेखनी मेरी लिखेगी दीन जन के आंसुओं को
विबस की आहें कराहें त्रस्त की खामोशियों को
मैं कृषक परिवार का हूँ महल का वंदन लिखूं क्यों?
रक्त टीका भाल हो तो भला मैं चन्दन लिखूं क्यों?
गीत गाऊंगा सवेरे कृषक पग की धूल के
शाम को किस्से सुनाऊं गरीबी के शूल के
जिन निराशायुक्त आँखों में तिरें उम्मीद के शब
मैं तुम्हे किस्से सुनाऊँ मरुस्थल के फूल के

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