रविवार, 3 नवंबर 2019

अभी क्षितिज पर प्रेम राग की छोटी कविता झाँक रही थी



अभी क्षितिज पर प्रेम राग की छोटी कविता झाँक रही थी
कैसे मैं दुनियां में उतरूँ अपना मौका ताक रही थी
चुनरी उसकी भारत माँ सी सुमनगुच्छ सी सुरभित थी
हांथों में रस कलश लिए वह मधुर गीतिका मुखरित थी
लेकिन तभी सुनाई उसको मनु पुत्रों की रण भेरी
जातिपंथ में बटी हुयी मानव के नफरत की ढेरी
देखे नफरत के सौदागर भारत की बाज़ारों में
बेंच रहे नफरत क़ी पुड़िया मित्रों में अखबारों में
कहीं कोई पंडित कुलभूषण बृह्मवाद ले बैठा है
कोई क्षत्रिय क्षत्रियकुल की शान बान में ऐंठा है
कही कोई हरिजन बैठा है शदियों का शोषण लेकर
हिन्दू मुश्लिम कोस रहे हैं आपस में जल पी पीकर
जिससे कुपिता दुखी रागिनी बिन गाये ही चली गयी
शीश तिरंगे में ढाँके वह अश्रु बहाती चली गयी
अगर भारती के सब बेटे रहें साथ में मिलझुलकर
प्रेमराग भारत में गूंजे खुशियों से पूरित होकर

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