प्रेमपंथ की सारी यात्रा कंटकपथ पर ही क्यों बीते?
चलो घड़ीभर बैठें चलकर उस उपवन में तरुके नीचे...
जहाँ लताएं नव तरुओं का आलिंगन झुक कर करतीं हों
पुष्पों के कानो में कोयल, अद्भुत प्रेम कथा कहती हो...
पुष्प वल्लरी कुछ अलसाकर, तिरछे नयनो से कुछ कहकर
प्रियतम को कुछ समझाती हो, नत मृदु-स्मित शर्माती हो...
जहॉँ पुष्प का प्रणय-निवेदन, नटखट भौरा लेकर सत्वर
नवल जूही से कह आता हो, गूढ़ संदेसा पहुंचता हो .....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें