रविवार, 3 नवंबर 2019

लेचल मुझको वहाँ जहाँ पर


लेचल मुझको वहाँ जहाँ पर
बहती हो कलकल निर्झरिणी
उन गिरि शिखरों के अंतस से
जिन पर झुकी मेघ मालाएं...

दूर कहीं पर झील किनारे
बसे गडरियों के पुरवे से
मधुर मधुर बंसी की वह धुन
कानो में रस घोल रही हो....

अस्ताचल की गहन गोद से
अरुणिम बदली के पीछे छुप
सूरज की वह सुखद लालिमा
वन प्रदेश में फ़ैल रही हो....

ऊँचे देवदार के वन के
बीच कहीं पर झील किनारे
(
छोटे से आश्रम में सुंदर)
मृग, मयूर के सुखद साथ में
अपना सुखमय सा जीवन हो....

खग-कलरव की मुखर प्रभाती
सुनकर निद्रा त्याग चल पड़े
प्रातः स्नान ध्यान करने को
कर में सुलघु कमंडल थामे...

कहीं ठहरकर पलभर रूककर
गिने रंग तितली के पर के
कही बैठ कर सुने घडी भर
जल प्रपात का राग ठहर कर....
पवन से गठजोड़ करके
वाष्प अम्बर ओढ करके
ढक लिया है सूर्य घन ने
बदलियों को जोड़ करके

किन्तु आखिर कब तलक
यह भाप की बदली बिचारी
छुपा पायेगी महा रवि को
बदलियाँ जोड़ सारी?


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