सोमवार, 9 मार्च 2020

जिज्ञासु सप्तमी एवं अष्टमी वीथिका


सप्तमी वीथिका
पथ प्रदर्शक अनुशरण में शांति थी मन हर्ष था
नहीं शंका, भीति, चिंता का कहीं स्पर्श था
वेणु के मृदु नाद से मोहित हिरन सा हाल था
जा रहा जिज्ञासु खुद फंसने जहाँ पर जाल था

कुछ समय के बाद दल के साथ वह पहुंचा वहाँ
बहुत ही विस्तृत नगर सुरधाम जैसा था जहाँ
मध्य में पुर के बहुत ही बृहद मण्डप भव्य था
जहाँ सिंहासन स्वर्णमय पड़ा अद्भुत दिव्य था

थी बहुत ही भीड़ उस विस्त्रत बड़े दरवार में
मंत्रिपरिषद, दंडनायक, प्रजाजन आगार में
किन्तु सिंहासन स्वर्णमय किसी कारण रिक्त था
नहीं नृप कोई महापुर में अभी अभिषिक्त था

महामंत्री ने किया यह प्रश्न जन समुदाय से
कौन बनना चाहता है नृप स्वेच्छा भाव से?
सभी जन थे मौन उनको नहीं था अभिषिक्त होना
किन्तु यह जिज्ञासु अवसर चाहता था नहीं खोना

महापुर के स्वर्ण सिंहासन हुआ आसीन
भोगता बहु  राज सुख हर दिवस नित्य नवीन
नगर की प्राचीर में सुन्दर सुदृढ़ नौ द्वार थे
कई नगरों उपवनों के मार्ग वे साकार थे

महापुर सम्मुख अधोमुख नगर में दो द्वार थे
नाम घोटक और गर्धव बहुत दृढ विस्तार थे
इन्ही से जिज्ञासु जाता मदन उपवन भ्रमण करने
तोड़ने मनसिज कुसुम तितलियों के पर पकड़ने

द्वार दो थे गिरि नगर के शिखर वाले प्रान्त में
स्वेत-श्याम कपाट रक्षित एकसम मणिकांत से
इन्ही से जिज्ञासु जाता रूपकानन भ्रमण करने
स्वेत हय चढ़ नित्य छायामृगों का आखेट करने

इन्ही के कुछ पास नीचे द्वार रहित कपाट थे
अनावृत रहते सदा जिज्ञासु के प्रिय द्वार थे
इन्ही द्वारों से निकलकर वह सदा जाता चला
गंधमादन शैल शिखरों में सदा सौरभ जहाँ

इन्हीं के कुछ पास नीचे द्वार दृढ़ अतिरिक्त था
नाम था रसघोष जिसका सित कपाटों युक्त था
खोलकर जिज्ञासु इसको सदा जाता मधुमदा को
विविधि रस के भोग चखने पान करने सोमरस को

नगर के उत्तर दक्षिण द्वार तोरण युक्त थे
बहुत अधिक विचित्र रचना स्वर्ण से संयुक्त थे
इन्ही द्वारों से चला जाता सदा संगीत सुनने
चाटुकारों मसखरों के लोक सच्चे मीत चुनने



बहुत दिन बीते किन्तु मन में नहीं विश्राम था
लोकभोगों में रमा जिज्ञासु अब निशि-याम था
भीति चिंता मोह ने जकड़ा पुनः जिज्ञासु मन को
वही रिपु फिर से मिले भागा ग्राम से छोड़ जिनको
***
महापुर बसते हुवे बीता बहुत सा काल
भोग मोहित बुद्धि दोषों से घिरी तत्काल
भर लिए जिज्ञासु ने थे स्वर्ण के भण्डार
शक्ति कुल धन गर्व से वह फूल अंडाकार

छिप गया अति शीघ्र ही सब दया करुणा भाव
मधुरता से रिक्त, सेवा का नहीं कुछ चाव
लोक पोषण, प्रजा पालन, दान औदार्य
व्यर्थ थे लगने लगे सब लोकभावन कार्य

देह का होने लगा था बहुत विकृत रूप
वस्त्र अब कब तक छिपाये भीति का प्रतिरूप
एक दिन जिज्ञासु प्रातः जा रहा था अटन को
बाल, शिशु भयभीत उसके देख वपु-संगठन को

देखकरके महापुर के श्वान लगते भौंकने
अश्व रस्सी तोड़ भागे पशु लगते चौंकने
जा सरोवर जब निहारा महोदय ने निज रूप
देखकर थे व्यथित चिंतित महांपुर के भूप

शीश पर थे उगे उसके बड़े पैने श्रृंग
दिख रहा यमदूत सा वह हाँथ पकड़े खङ्ग
बहुत ऊँची हो गयी थी खूब मोटी नाक
रक्त जैसी लाल उसकी स्नेहहीना आँख

कान गजवत हो गए थे खूब चौड़े बहुत भारी
जीभ लंबी लटकती थी वक्ष तक वहु भयंकारी
पीठ पर कूबड़ उगा था बड़े से कूष्माण्ड सा
लग रहा जिज्ञासु अब तो वस्त्र पहने सांड़ सा

किन्तु जग की नीति ठहरी गूढ़
आत्मश्लाघा ग्रस्त जिससे बना रहता मूढ़
शीश जिसके मुकुट वह सुन्दर वही ज्ञानी
कौन कह सकता उसे अति क्रूर अभिमानी?

रक्त-रंजित हाथ बहुधा चूमता है लोक
गूँजता जय घोष उसका जो करे भय शोक
जगत में जो भी बने हैं क्रूरता पर्याय
वही कहलाये महादानी, परम, प्रिय-न्याय

स्वर्ण-आसन बैठते जिज्ञासु जी महाराज
चाटुकारों के सजे सब ओर अद्भुत साज
नित्य उनके रूप पर जाते लिखे नव छंद
यशोगाथा नित्य गाते वहु-कुशल कवि वृन्द

गढ़ा करतीं अप्सराएं प्रेम के आयाम
कहा करतीं आपको अनुपम अमित अभिराम
पाप का वीभत्स रस वर्णित करें मकरंद सा
चाटुकारों से घिरा शव सड़ा जम्बुक वृन्द सा

किन्तु आखिर कब तलक जिज्ञासु होता आत्म- विस्मृत
और करता चला जाता रूप अपना और विकृत
अभी भी प्रज्ञा नयन में ज्योति थोड़ी शेष थी
पुनः पाने को पुरानी कान्ति चाह विशेष थी

जिज्ञासु का आत्म-प्रबोधन 
उठो! हिमालय सा सिर उन्नत वाणी में सागर गंभीर हो
आँखों में सूरज की आभा अधरों पर शीतल समीर हो
जिह्वा में हो शक्ति सत्य को कह सकने की
कानो में हो शक्ति सत्य को सह सकने की

व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व सराहो भक्त बनो उन्नत विचार के
आलोचक या बनो प्रशंसक केवल मानव के विचार के
नए देवता गढ़कर उनको कब तक शीश झुकाओगे?
मानव गलती का पुतला है आखिर में पछताओगे

कब तक भोग वृक्ष के नीचे तुम आशा तृन बीनोगे?
मृगमरीचिका के जल से सपनों को कब तक सींचोगे?
चित्रलिखे दीपक को कबतक सूरज सूरज बोलोगे?
  
सुप्त रहोगे जीवन सारे या ऑंखें भी खोलोगे?

बादल के उसपार निहारो चमक रहे कितने तारे
सूरज से बहुगुणित प्रकाशित उनमे हैं कितने सारे
भूमंडल पर उनको लाने पंख बांधकर जाना होगा
उन्हें तोड़कर लाना होगा या खुद रवि बनजाना होगा

 ***





अष्टमी वीथिका 
रात्रि में जब सो रहे थे सभी लौकिक लोग
भोग-वर्तुल में फसे सब महापुर के लोग
चल दिया जिज्ञासु करता पार वन उद्यान
उसे था गन्तव्य का किञ्चित नहीं कुछ ज्ञान

पथ तमावृत, रात्रि अब भी थी प्रहर भर शेष
बहुत दुष्कर हो रहा था छोड़ जाना देश
लोभ के अदृश्य बंधन मोह के दृढ़ पास
खीचती सी थी उसे सुख भोग की अभिलाष

पैर कहते थे हमें आदत नहीं संचरण की
नेत्र कहते हमें इच्छा रूप वैभव वरण की
कान कहते हमें सुनना चाटुजन से यशोगाथा
जीभ कहती मुझे पुर का सरस भोजन बहुत भाता

और कहती नाशिका तुम हो गये क्या अंध
ले चलो मुझको जहाँ पर महकता मकरंद
आज प्रातः फिर खिलेंगी मालती की नयी कलियाँ
हाथ कहते हाँ हमें भी पकड़नी सुन्दर तितलियाँ

पीठ कहती मुझे देदो मखमली पर्यंक
मुझे बिलकुल भी नहीं सोना धरा के अंक
बना अधिवक्ता सभी की मन सिफ़ारिश कर रहा
भोग सुख की चाहना के तर्क अगणित दे रहा


किन्तु सहज विवेक अति गंभीर न्यायाधीश सा
श्रेय-प्रेय विचार करके न्याय देता ईश सा
अजा-सुत से मुर्ख बन कर मत बंधो बलि-यूप से
नहीं मोहो शलभ से तुम दीप-लौ के रूप से

चिर पथिक तुम पंथ पर बढ़ते चलो बढ़ते चलो
अर्थ जीवन का यही आयाम नव गढ़ते चलो
जगत में उपलब्ध जितने भी अनोखे भोग हैं
दिया करते सभी तन-मन को बहुतसे  रोग हैं

रात भर चलते हुवे हो गया श्रमित विशेष
नहीं बिल्कुल भी बची थी शक्ति उसमे शेष
क्षुधा-तृष्णा से प्रताड़ित विकल व्याकुल खिन्न
आज था जिज्ञासु बिल्कुल महांपुर से भिन्न

बीत जाती तिमिर युक्ता घोर भयकारी निशा
पुनः जाती अरुणिमा युक्त वह प्यारी उषा
पुनः खिल जाते कुसुम फिर महकता मकरंद
पुनः बहती पवन मलयज जगाती आनंद

नियति-पथ पर विचरता चिरपथिक प्रातःकाल
देखता सरसिज सरोवर परम रम्य विशाल
तिर रहे थे हंस सुन्दर, खिल रहे थे कञ्ज
विविध रंगों के सुवासित बने सुषमा पुंज



उगीं थीं तट प्रान्त में बहु वृक्ष-मालाएं
पुष्प-फल के भार से थी झुकीं शाखाएं
गा रहे अनुपम प्रभाती विविधि स्वर खग-बृंद
बह रही पश्चिम दिशा से मलय शीतल मंद

देखकर अद्भुत सरोवर परम शोभा युक्त
प्रकृति का सौंदर्य अनुपम प्रेम से संयुक्त
मिट गया सब खेद, मन विस्मित, प्रफुल्लित गात
हो गया संतुष्ट खाकर सरस फल मधु-जात

चर रहे थे हिरण विस्तृत घास के मैदान
उछलते शावक सलोने किये ऊँचे कान
लगी गिलहरियाँ सुनहरी खेल के उद्योग में
शषक दल थे लीन अपने खेल भोजन भोग में

सरोवर की उर्मिया प्रातः अरुण से दीप्त थीं
उछलती अगणित मछलियाँ स्वर्ण-आभा दीप्त थीं
हंस युगलों सारसों के केलि में मन लीन था
प्रकृति के सौंदर्य में जिज्ञासु परम विलीन था

तभी बम बम ध्वनि अपर तटप्रान्त पर गुंजित हुई
साधु अवली वटुक जन के साथ फिर पुंजित हुई
ग्लानि दुःख अभाव से बिल्कुल सभी निर्लिप्त थे
प्रकृति के सानिध्य में सुख शान्ति से सब तृप्त थे



ले अरुण सा तेज जल में कर रहे सब स्नान क्रीड़ा
तन प्रफुल्लित, वदन विहसित, नहीं किंचित ताप पीड़ा
पुनः अनुशासित हुवे सब वटुक गुरु सद्भाव से
किया जल अर्पित सूर्य को परम सुविनत भाव से

सूर्य शूक्त सुगान से फिर हुआ गुंजित विपिन सारा
वेद पुरुषों ने किया फिर प्रकृति वंदन मन्त्र द्वारा
फिर दिशाओं में परम सुख शांति फैलाते चले
लोकभावन भाव से सब उषा श्रुति गाते चले

सोंचता जिज्ञासु मन में वाह क्या गुरुधाम है!
प्रकृति के सानिध्य में जीवन सुखद निष्काम है
क्या इन्हें भी धनिक की धन सम्पदा से द्वेष होगा?
क्या अभी इन साधको में क्रोध पावक शेष होगा?

रूप रस स्पर्श का सुख इन्हें भी क्या इष्ट है?
लोभ लालच काम कंचन क्या यहाँ अवशिष्ट है?
लोक की सब दीनताएँ इन्हें क्योंकर छू सकेंगी?
यहाँ वैचारिक गरीबी भला कैसे रह सकेगी?

ये प्रकृति के पुत्र क्यों भोगें महल के त्रास को?
क्यों गले में बाँध ले निज कर जगत के पास को?
विचरते निर्द्वन्द निज माता प्रकृति के अंक में
और सो जाते परम विस्तृत धरा पर्यंक में


सोंचता यों ही चला जिज्ञासु जल स्नान कर
जिस दिशा में गए थे सब वटुक सुन्दर गान कर
निकट ही सुन्दर बनी थी पर्ण शालाएं
कर रहीं जिनको सुशोभित लता मालाएं

पुष्प फल से लदे कितने मनोरम उद्यान थे
खग-मृगों से पूर्ण अति सुन्दर निरापद स्थान थे
बीच में था बहु सुशोभित यज्ञ मंडप दिव्य सा
था अलंकृत पत्र-पुष्पों से बहुत ही भव्य सा
नहीं कोई भीति चिंता, शांति का साम्राज्य था
तपोवन में ज्ञान का कैसा अलौकिक राज्य था
हर किसी के बदन पर तेजस्विता का मान था
नयन उत्फुल्लित प्रफुल्लित शब्द में भी प्राण था

महांपुर में बसा करते दैन्य, लालच, भय, कुटिलता
तपोवन में विचरते हैं सुमति, श्रद्धा, शांति, शुचिता
कहाँ पुर में दृढ़ दीबारों में स्वयं को कैद करना?
कहाँ उपवन में सदा निर्द्वन्द होकरके विचरना?

कहाँ पुर में परिग्रह से दीनता भण्डार भरना?
कहाँ इस वन में प्रकृति की सम्पदा का भोग करना?
खग-मृगों के साथ इन हरियालियों को यूँ निरखना
सुखद कितना है निशा में नखत-तारों को परखना

आह! देखो मस्त होकर मोर कैसा नाचता है
और खगकुल सुर मिलाकर साम-श्रुतिया बाँचता है
और निर्झर मृदुल मुखरित हो बजाता साज सा
मुझे पुर में कब मिला आनंद अनुभव आज सा?

जा रहा जिज्ञासु करने गुरु शरण में आत्म अर्पण
मानसिक अनुवृत्तियों का नहीं करना और तर्पण
अब मुझे संतोष के आनंद उपवन में विचरना
क्रोध, चिंता, भय, निराशा, लोभ से बाहर निकलना
***
विजन में पत्थर शिला पर मौन
ध्यान में यह परम योगी कौन?
जगत के कोलाहलों से दूर
कौन यह जो तपस्या में चूर

हिमालय की गोद में विश्राम
कर रहा यह कौन तज सब काम?
पर्ण-कुटिया सरोवर के तीर
चमकता निर्मल हृदय सा नीर

अर्ध उन्मीलित नयन में शांति
झलकती मुख पर अनोखी कांति
दुःख माया मोह सारा छोड़
लोभ के सब कठिन फंदे तोड़
कौन यह जो से रहा एकांत?
हो निरामय वनांचल में शांत
देखता वह प्रकृति का ऐश्वर्य
मन प्रफुल्लित लिए अविचल धैर्य
***
 
शांति की आगार हैं ये पर्ण शालाएं
खेद का उपचार हैं ये वृक्ष मालाएं
ये पवन निश्चित भरेगी शांति शीतल व्यथित मन में
खगकुलों का मृदुल गायन भरेगा आनंद तन में

सोंचता यूँ ही चला था जा रहा जिज्ञासु प्रमुदित 
प्रकृति के सानिध्य से मन मुदित स्वस्थ शरीर ऊर्जित 
तभी सम्मुख परम सुन्दर शांत आश्रम प्रान्त था 
अहा कितना ही सुखद यह लोक सुन्दर शांत था
***


पर्ण-कुटीरों के मण्डल के
मध्य सघन तरु की छाया में
घिरे चंद्र की भांति सुशोभित
वटुक जनो से गुरु विद्वत जन

कहीं साम सस्वर अनुगायन
जटापाठ में अविरल वाचन
कहीं सूत्र की तत्व-मीमांशा
सुनते वटुक किये मन अर्पण

कहीं गणित, ज्योतिष के साधक
दत्तचित्त हो शान्त बैठकर
गुरुके उपदेशों को सुनकर
करते सब अभ्यास निरंतर



कहीं क्षात्र-विद्या में कोई
निपुण परशुधर , द्रोण धुरंधर
शस्त्र अस्त्र के सुप्रयोग में
दक्ष बनाते वीर वटुक दल

इस गुरुकुल के मध्य सुशोभित
अति विशाल वट वृक्ष सुविस्तृत
के नीचे विद्वत-मण्डल में
बैठे महाचार्य तेजोमय

दीप्त भाल गंभीर नयन अति
शुभ्र केश स्मित वपु आनन
मित भाषण गंभीर सुचिन्तन
मृदुल सुसरल विषय प्रतिपादन

कर्ण-पुटों से पान कर रहे
विनत भाव से सभी सुधीजन
धन्य-धन्य सुन्दर आश्रम-पद
ज्ञानोदय का शुभ्र दिवाकर 
***
मरुस्थल का पथिक जैसे झील कोई पा गया हो
डूबते के हाथ में अबलम्ब कोई आगया हो
घिर गया हो बाल-मृग कानन-अनल से तभी जैसे
महाघन जलधार लेकर वहाँ कोई आ गया हो

देखकर आश्रम सुखद जिज्ञासु के मन हर्ष था
दैन्य-चिंता भय निराशा का नहीं स्पर्श था
"आज मुझको मिल गया है सत्य-पथ का मार्गदर्शक"
सोंचकर मन में प्रफुल्लित परम भाग्योत्कर्ष था

ह्रदय गदगद मधुर वाणी और परम विनीत होकर
खड़ा अंजलि बाँध गुरु के पास पग में सिर नवाकर
महागुरु ने कहा बोलो वत्स कैसा कष्ट है?
नहीं है मन शान्त किंचित यह परम स्पष्ट है

मैं पथिक आनन्द-वन का ज्ञान का जिज्ञासु हूँ
स्वाति के जलबिंदु का मैं परम व्यग्र पिपासु हूँ
गर अकिंचन पर दया गुरुदेव हो जाये
तो मुझे आनंद-वन का मार्ग मिल जाए

मौन मुखरित हो गया स्मित अधर सुखधाम थे
परम कोमल भाव वाले नयनद्वय अभिराम थे
नेत्र के संकेत ने कह दिया पंथी बैठ जाओ
सरल भावों ने कहा निर्भय रहो अब भय भगाओ

पास तरु पर कोकिला ने पुनः सुर से सुर मिलाया
और पुनः मयूर ने नर्तन क्रिया का छत्र छाया
पुनः उनको देखकर स्मित हुए वन-कुसुम थे
पुनः मन मुकुलित हुवे अब नवल आशा-पुंज थे

 ***

नित्य ही जिज्ञासु सुनता ज्ञान के उपदेश सुन्दर
योग-प्राणायाम करता निरत सेवाभाव तत्पर
प्रात संध्या नित्य ही वह किया करता धेनु सेवा
प्रकृति के सानिध्य में वह शांत मन हो आत्म निर्भर


हर कली, हर पेड़, हर पक्षी, प्रकृति के सभी अवयव
सिखाते थे उसे नवल रहस्य सुख के नए अनुभव
सुमन गुच्छो पर भटकतीं वे बिरंगी तितलियाँ
प्रकृति ने अद्भुत कला का सार जैसे कह दिया

सोंचता वट छाँह बैठा ब्रह्म क्या है श्रष्टि क्या है?
और फिर यह व्याप्त चारो ओर सभी समष्टि क्या है?
घूमते ब्रह्माण्ड अगणित अमित ग्रह तारे शिलाएं
इन सभी का सार क्या आधार क्या है?

पंख फैला नृत्य करते मोर ने उत्तर दिया ज्यों
सार मैं, आधार मैं, इस जगत का करतार "मैं हूँ"
तभी पश्चिम गगन में छिटका दिए बहु रंग सुन्दर
सांध्य सूरज ने कहा "संसार मैं भरतार मैं हूँ"

महावट के पत्र खड़काती हुई सी पवन बोली
क्या तुझे दिखता नहीं है अक्ल तेरी बहुत भोली
"ब्रह्म मैं, भगवान मैं हूँ, प्राण का परिमाण मैं हूँ
तर्क का अनुमान मैं ही योग का निर्वाण मैं हूँ"

तभी भोजन भार लेकर रंध्र अपने जा रही थी
प्रवल पौरुष कर विजय के गर्व से जो गा रही थी
वह सुलघु चींटी लगा जिज्ञासु को ज्यों कह रही हो
"मैं क्रिया हूँ, कर्म हूँ, अवलंब मैं आयाम मैं हूँ।"

प्रकृति सहसा जग पड़ी, हर चीझ जैसे कह पड़ी हो
प्रकृति ब्रह्म-विराट बनकर आज यूँ सम्मुख खड़ी हो
"लोककर्ता लोक मैं हूँ, मैं तिमिर आलोक मैं हूँ
ईश मैं, जगदीश मैं हूँ, भोक्ता मैं भोग मैं हूँ"

तभी संध्या-वंदना के हेतु आवाहन हुआ
संख की ध्वनि घोष से गुंजित महाँ कानन हुआ
ॐ ध्वनि के साथ संध्या-गीत सब गाने लगे
वेद ध्वनि के उच्च स्वर दस दिशा में छाने लगे
***

द्वंद्व चिंता वासनाएं शांत होतीं जा रहीं थी
मोह की गुंठित लताएं म्लान होती जा रहीं थीं
धन-पिपासा मान गौरव अर्थ खोते जा रहे थे
प्रेम के आयाम विस्तृत और होते जा रहे थे

संकुचित संसार अपना कहीं पीछे छोड़ आया
लोभ लालच व्यूह को विक्रांत योद्धा तोड़ आया
क्रोध का ज्वर शांत सारा जगत ही रिपुहीन था
शांतिवैभव के परम स्यन्दन सदा आशीन था

वह जिधर भी देखता बस स्वयं का विस्तार था
सिंधु गिरि कानन सरोवर जीव जड़ आकार था
जगत में अंतरप्रवाहित तत्व सत्ता एक थी
द्वैतता भ्रम-दृष्टि से वह दिखा करती अनेक थी

अधर स्मित मन प्रफुल्लित स्वस्थ तन निर्द्वन्द था
जा रहा जिज्ञासु पथ पर गुनगुनाता छंद था
वह जगत जो अभी कल तक अति दुखद भव सिंधु था
आज क्रीड़ा प्रांगण था तत्व का ही बिंदु था



शांत रस की वृष्टि से अब क्रोध अग्नि प्रशांत थी
प्रकृति के औदार्य से अब लोभ तृष्णा शांत थी
अहम् के सब भाव पल में छोड़ अन्तर्हित हुवे
यश बड़ाई मान सब विश्वेश में अर्पित हुवे

अब नहीं इस जगत में कुछ प्राप्त करना शेष था
मान-कंचन-कामिनी का चाव  अब शेष था
पुनः अब जिज्ञासु का वपु परम कंचन-कांत था
ब्रह्म-रस की मूर्ति था वह सदा प्रमुदित शांत था

***
 










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जिज्ञासु समर्पण, कवि परिचय, प्रस्तावना एवं वंदना

जिज्ञासु    डॉ . बृजमोहन मिश्र   समर्पण   पूज्या माता स्वर्गीया मंगला देवी एवं पूज्य पिता श्री रामू लाल मिश्र को ...