लेकिन दो आँखे जाग रहीं वेदनायुक्त मानस लेकर
दो कानो में था गूंज रहा मुंगलों का विजयी अट्टहास
दो हाँथ पहुँचते बार-बार तलवार मुष्टि पर अनायास
सो रहे भूमि पर राजपुत्र अलसाये सिंह शावकों से
आनन थे उनके क्लांत हुवे भस्मस्थित यज्ञ पावकों से
राणा की ऐसी दशा देख शशि अश्रु बहाता तुहिन बिंदु
तिरछा हो दृस्टि बचाता सा नौमी का तिर्यक शरद इंदु
राका किरणों से चमक उठा राणा का भाला शत्रुंजय
सहसा मानो हो बोल पड़ा "संगरजित राणा वीरंजय,
है रक्त शिराओं में जब तक, जब तक शरीर में प्राण शेष
मन में संकल्प विजय का है अपनी मिटटी का प्रेम शेष
जब तक है शक्ति भुजाओं में मुझको ले उठा घुमाने की
तब तक हो तुम राणा प्रताप तुममे क्षमता है पाने की
आओ फिर मिलकर एक बार करते सुत्रप्त रण-काली को
चढ़ शीश काल के चलो लिखें जयगाथा वीरों वाली को
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