माना कि गंतव्य दूर है
पंथ बिछे कंटक मरु गिरि हैं
निर्जन पथ घनघोर तिमिर है
पास नहीं गृह गाँव नगर है
किन्तु आज भी कोई तो है
तुमसे हर पल कहता जो है
"विजय पंथ के वीर पथिक तुम
बढ़े चलो तुम! बढे चलो तुम!
तुम्हे क्षितिज के पार पहुंचकर
उदयाचल के श्रृंग लाँघ कर
रवि से मिलने जाना होगा
उसे साथ ले आना होगा"
पंथ बिछे कंटक मरु गिरि हैं
निर्जन पथ घनघोर तिमिर है
पास नहीं गृह गाँव नगर है
किन्तु आज भी कोई तो है
तुमसे हर पल कहता जो है
"विजय पंथ के वीर पथिक तुम
बढ़े चलो तुम! बढे चलो तुम!
तुम्हे क्षितिज के पार पहुंचकर
उदयाचल के श्रृंग लाँघ कर
रवि से मिलने जाना होगा
उसे साथ ले आना होगा"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें