रविवार, 3 नवंबर 2019

उठो!



उठो! हिमालय सा सिर उन्नत वाणी में सागर गंभीर हो
आँखों में सूरज की आभा अधरों पर शीतल समीर हो
जिह्वा में हो शक्ति सत्य को कह सकने की
कानो में हो शक्ति सत्य को सह सकने की
व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व सराहो भक्त बनो उन्नत विचार के
आलोचक या बनो प्रशंसक केवल मानव के विचार के
नए देवता गढ़कर उनको कब तक शीश झुकाओगे?
मानव गलती का पुतला है आखिर में पछताओगे
वटबृक्षो के नीचे आशा तृन बीनो यह बुरा नहीं
मृगमरीचिका के जल से सपनों को सींचो बुरा नहीं
चित्रलिखे दीपक को कबतक सूरज सूरज बोलोगे?
वर्ण अंधता के कारण क्या रंग ज्ञान भी खो दोगे?
उड़ना है तो खुद हांथों में पंख बांधकर उड़ना होगा
अंधियारे को दूर भगाने खुद मशाल बन जलना होगा
कोई चलकर कभी अकेले मरुथल पार नहीं करता
बना कारवां एक साथ मिल कदम मिलाकर चलना होगा
बादल के उसपार निहारो चमक रहे कितने तारे
सूरज से बहुगुणित प्रकाशित उनमे हैं कितने सारे
भूमंडल पर उनको लाने पंख बांधकर जाना होगा
उन्हें तोड़कर लाना होगा या खुद रवि बनजाना होगा

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