सोमवार, 9 मार्च 2020

जिज्ञासु प्रथम एवं द्वितीया वीथिका





प्रथम वीथिका
 

भाद्रपद की कृष्ण कलुषित चंद्रहीना रात
निशा घन मण्डित विकट थी हो रही बरसात
यामिनी जब रह गयी थी घड़ी भर ही शेष
किया जग में एक शिशु ने रुदन सहित प्रवेश

अभी कुछ पल पूर्व ही श्रीहीन थे जो नैन
भय, निराशा, धैर्य खोए, आकुलित, बेचैन
खिल गए सब स्नेह-सर के कंज से सुखधाम
मौत सी नीरव-निशा में गीत मधुर ललाम

वे अधर जो हो रहे थे दुःख के आगार
सूखकर जो म्लान थे दुःख दैन्य खेद अपार
उदय उन पर हो गयी थी पुनः स्मित-रेख
निराशा में पुनः चमकी ज्योति आशा एक

सेर भर का टपकता फूटा हुआ सा दीन
रुदन ही व्यवसाय जिसका म्लेक्ष महा मलीन
मांस के उस पिण्ड में माँ खोज लेती लाल
भूल जाती सभी अपने कष्ट-दुःख-मलाल

तुच्छ से उस पिण्ड को निज स्नेह रस से सींच
तैल-आसव तन्त्र-मन्त्रों की सुरक्षा बीच
भूल जाती स्वत्व बन जाती स्नेह की मूर्ति
नहीं आलस शेष, माँ की धन्य वह स्फूर्ति

कुछ समय के बाद जग में खुल गए दो नैन
खोजते से , पूछते से, चकित से बेचैन
तभी दो आँखे दिखी थीं प्रेम करुणा युक्त
नेह बरसाती हुईं सी सुधा से संयुक्त

उठा करते प्रश्न कितने, मन परम जिज्ञासु
माँ तेरे स्मित अधर बोलते उत्तर आशु
अनगिनत थे प्रश्न उनके अनगिनत उत्तर
बढ़ चला जिज्ञासु यूँ इस जगत के पथ पर

इंद्रियों की लग्गियों से चला लेता थाह
जगत सागर का वटोही चला डगमग वाह!
संभलता चलता गया वह अजिर के उस पार
जोड़ता संसार से घर को जहाँ पर द्वार

भवन की प्राचीर से बाहर जगत संसार
बहुत दुष्कर है भरा छल-छंद, द्वंद्व, विकार
अरे नन्हे वटोही, बिना सीखे ज्ञान
जगत की टेढ़ी डगर, तू अभी भोला, जा

सीख ले तू सत्य जैसा बोलना मृदु झूठ
दया के आवरण में निर्दय हृदय ले ठूंस
सजा ले अपने अधर पर मधुर सी मुस्कान
जगत के दस्तूर जितने ले सभी तू जान

सुनाए फिर उसे कितने किस्से रंगे सियार के
ढोंगी बाबा, संख थोथा, अश्रु के घड़ियाल के
कुछ समय में सीख डाला जगत का सब ज्ञान
बन गया जिग्यासु अब चालाक परम सुजान

उगा करता नित्य रवि लेकर उषा का तेज
मुस्कुराता छोड़ता जिज्ञासु अपनी सेज
चुना करता फूल गिनता तितलियों के रंग
फिरा करता घूमता नित बालकों के संग

किन्तु रवि का चक्र कब रुकता? समय आधीन
उदय होकर अस्त होता निज नियति में लीन
देखता आश्चर्य से तारा-खचित आकाश
कल्पना के पंख बाँधे नित नया उल्लास

दिवा-स्वप्नों में रचा करता अनेक विमान
बैठ कर उन पर पहुँचता वह कहाँ-कहाँ
कल्पना के महल उस जिज्ञासु ने कितने रचे
युक्त सर, वाटिका, सुन्दर द्वार सब हीरक खचे

बड़ा अब यूँ हो चला संसार का लघु वृक्ष
हो गया कुछ मूल लौकिक कला-लीला दक्ष
गया विद्यालय सीखने जगत का व्यवहार
अर्थ का वाणिज्य , अद्भुत शब्द का व्यापार
अब पता चल गया था जिज्ञासु को यह ज्ञान
"
सत्य बोलो, नहीं मिथ्या" है किताबी ज्ञान
सत्य अति क्रोधी पिता सा लाल करता कान
झूँठ मौसी सा छुपाता बचा लेता प्राण

शीघ्र ही वह जान लेता शब्द का व्यापार
आत्मश्लाघा ग्रस्त होना ज्ञान का व्यवहार
शब्द-जालों से रचा यह लोक का विज्ञान
है वितंडावाद ज्यादातर नहीं कुछ ज्ञान

पढ़ाता इतिहास हम कितनी जगह पर कहाँ हारे
लुटे कितनी बार, कितनी बार कब कब गए मारे
इसलिए जिज्ञासु को भाया नहीं इतिहास
मूर्ख लोगों ने लिखा है यह पराजय परिहास

लिखी है इतिहास ने कातिल लुटेरों की कथा
क्यों नहीं है लिखी इसमें दीन श्रमिकों की व्यथा?
गर लिखी जाती कहानी शौर्य की, बलिदान की
गर लिखी होती कहानी त्याग की, कल्याण की

सिखाता जिज्ञासु को इतिहास का वह लेख
गढ़ा करता स्वयं को उन श्रेष्ठ जन को देख
कर रहा कैसे प्रभावित आत्मगौरव रोज
घोर अपमानित पराजित युवा है हर रोज

और हाँ भूगोल की पोथी पढ़ीं दो चार
रक्त से खींची लकीरें भूमि पर सौ बार
खून की प्यासी लकीरें, हैं किसी की चाल
बिल्लियों को लड़ा बन्दर खा गया सब माल

अरे हाँ जिज्ञासु ने कुछ दिन पढ़ा विज्ञान
बन्दरों के हाँथ में जैसे तीक्ष्ण किरपान
बमो के इक ढेर पर बैठा दिया इंसान
गा रहा शमशान में विज्ञान नित नव गान

हवा में विष घोल, रचता स्वछता का तंत्र
कर प्रदूषित सलिल, रचता सलिल-शोधक यंत्र
रोग फिर उपचार, रहता बनाता विज्ञान
रचा विष-वर्तुल अनोखा, नहीं बचने प्राण

कुछ बरस जिज्ञासु ने सीखे गणित सिद्धान्त
ज्ञात से अज्ञात कैसे प्राप्त करते भ्रांत
प्रश्न में ही छुपा रहता समीकर का खेल
शून्य से दुश्मनी अच्छी ही ज्यादा मेल

पर नहीं समझा अहा! जिज्ञासु भोला वाल
किस सफाई से उड़ाते लोक-सेवक माल
कल बना था लोक-सेवक आज माला-माल
कृषक मेहनत कर मरा, कंगाल का कंगाल

दर्शनों को पढ़ निकाला एक ही निष्कर्ष
शब्द-आडंबर बनाकर एक छीना वर्ष
दौड़कर क्या कभी मरु में बुझा पाया प्यास?
मूर्ख हिरण! मरीचिका है, जल नहीं है पास

इस तरह जिज्ञासु सीखे कई शिक्षा अंग
लक्ष्य शिक्षा का जुटाना वस्त्र, भोजन, रंग
नहीं इसका लक्ष्य कोई परम बुद्धि-विकास
वही है विद्वान जो कुछ कर सके परिहास

काश शिक्षा सिखा पाती प्रकृति का अनुराग
झूम उठता हृदय सुनकर सरस सरिता राग! 
काश पढ़ सकते लिखा जो पत्र-पुष्पों पर
स्वयं अक्षर ने समय की लेखनी लेकर!
 
क्या मिला हमको रटाकर मूर्खता के पृष्ठ
बुद्धि कुंठित हो गयी सब हुआ चिंतन भ्रष्ट
भर दिया स्मृति-पटल सब व्यर्थ तिर्यक पाप से
लोभियों के पापियों के नाम क्रिया-कलाप से
 ***
  

 द्वितीया वीथिका 
लिए उर में ज्ञान की तृष्णा गहन गंभीर
भटकता जिज्ञासु खोजे ज्ञान सरवर नीर
जगत-वन में भटकता ले प्रश्न उत्तरहीन
तर्कजालों में उलझता जा रहा वह दीन

प्रकृति ने देखा जभी जिज्ञासु पंथी श्रान्त
मन बुझा सा इंद्रियों का ओज निर्वल क्लांत
छू दिया उसको ज़रा शीतल पवन के हाँथ
प्रेम मधु से भर दिया उसका प्रफुल्लित गात
प्रेम  मधु से भर लगा गाने मिलन का  राग
काम शासित मन हुआ चंचल भरा अनुराग
और फिर मानस क्षितिज से लगी उठने गूंज
भ्रमर सी मकरंद खोजे प्रीति की अनुगूँज

जिज्ञासु का माधुर्य भाव  
कौन हमारे स्वप्न महल के
अनुभावों के इंद्रधनुष के
सतरंगी तोरण पीछे छुप
लज्जा के तिरछे घूँघट से
अंजन-रंजित नयन युगल से
शरमाकर उस नेह दृस्टि से
छुप छुप कर यूँ देख रहा है
सम्मोहन सा फेंक रहा है....?

मानस के इस शुभ्र निलय में
छिटकी शीतल रजत तारिका
रटने लगी प्रीति के दोहे
स्मृति की यह कुटिल सारिका
मानस के उसपार क्षितिज से
फिरसे मधुर वेदना पूरित
गीत मिलन का कूक रहा है
मंतर जैसा फूंक रहा है...?
***

हृदय में बज उठा सहसा प्रेम का मृदु राग
शिराओं में था प्रवाहित प्रकृति का अनुराग
इन्द्रियाँ मधु-लोभ में अनुरक्त शासित काम
विषय-पुष्पों पर भ्रमर बन भटकतीं निशि-याम

पूर्ण विधु की तारिका ने किये झंकृत तार
प्राण वीणा बज उठी मधु-मिलन को सुकुमार
निशा -बाला ने कहा कुछ पपीहे सा बोल
चूनरी तारक खची का ज़रा घूँघट खोल

चंद्र-मुख पर खिल गई वह गुढ़ सी मुस्कान
शरारत से छू रहे कोमल सुखद पवमान
झिल्लियों की झनक में नूपुरों की खनकार
अंग-सौरभ से सुवासित हो रहा संसार

उपवनों में गूंजते कोकिला के सन्देश
उषा में गाता प्रभाती चटक-दल सविशेष
पुष्प-गुल्मो के कलेवर में प्रकृति बाला
पिलाती मधु-चषक पूरित अति मधुर हाला

ढूंढता दीपक-शिखा वह बना राग-पतंग
अब बंधा जिज्ञासु का मन सुद्रढ़ पास अनंग
इंद्रियों के भोग उनको खींच लेजाते वहाँ
कब पतिंगा नहीं पहुचे दीप्त हो ज्योती जहाँ?

कल्पनाएं रूप लेकर सद्य  जातीं मूर्त हो
जीव के संकल्प रचते भोग हैं स्थूल जो
मन-सरोवर क्षोभ  करते व्यक्ति के संकल्प
उर्मियों से प्रकट होते भोग-विषय विकल्प

आज था जिज्ञासु बैठा सरोवर के तीर
निरखता निज बिम्ब को वह स्वछ दर्पण नीर
सरोवर के पास भी मनमे अमिट सी प्यास
उर्मियों में उलझ सम्मोहित हुआ सभिलाष

नियति अकसर खेलती रहती अनोखे खेल
करा देती लोक में कैसे अनोखे मेल
फिर दिखी नवयौवना सब रूप-सौरभ युक्त
लिए नयनो में निमंत्रण समर्पण संयुक्त

बज उठी सहनाइयाँ फिर खिले मन के फूल
मिल गए संसृति तरंगिणि के उभय फिर कूल
हुवे सब विस्मृत प्रश्न वह रूप गौरव देख
पढ़ा करता प्रिय नयन में लिखे अद्भुत लेख

मधुर वाणी झरा करते प्रेम के नित फूल
कार्य वे जो सुख बढ़ाएं मिटायें सब शूल
परस्पर श्रद्धा समर्पण प्रेम कटुता रिक्त
भोगते दाम्पत्य सुख का राजसुख अभिषिक्त

कभी मिलकर गुनगुनाते खिलखिलाते साथ
उपवनों में विचरते पकड़े प्रिया का हाँथ
प्रिया-प्रिय में ही समाया सिमटकर संसार
भ्रमर बन जिज्ञासु करता पुष्प पर गुंजार

एक दूजे के कलेवर बन गए पर्यंक
सो गए मृदु नीद, सिर रखकर प्रिया के अंक
जगत-नाटक का विदूषक बन हंसाता लोक
यवनिका से पूर्व सुख के दृश्य का आलोक


जिज्ञासु का वर्षा गीत
ये बादल ये सावन फुहारे ये रिमझिम
ये शीतल पवन और भीगा सा मौसम
ये चंदा का फिर-फिर से छुपना निकलना
ये मिट्टी से सोंधी सी खुशबू निकलना

सरे शाम झींगुर झिल्ली की झन झन
पड़े चांदनी बादलों से जो छन छन
ढले शाम जब झांझ झींगुर बजाएं
मगन होके दादुर ये कजरी सुनाएँ

मयूरी प्रशंसा करे बैठ डाली
कबूतर ख़ुशी से बजाते हैं ताली
अरे मीत थोड़ा सा बाहर तो आओ
ये बारिस के मौसम की मौजे मनाओ
*****


जिज्ञासु का उपवन विहार गीत

प्रेमपंथ की सारी यात्रा कष्ट पंथ पर ही क्यों बीते
चलो घड़ी  भर बैठें चलकर उस उपवन में तरु के नीचे
जहाँ लताएं नव तरुओं का आलिंगन झुक कर करतीं हों
पुष्पों के कानों में कोयल अद्भुत प्रेम कथा कहती हो

पुष्प वल्लरी कुछ अलसाकर, तिरछे नयनों से कुछ कहकर
प्रियतम को कुछ समझाती हो, नत मृदु-स्मित शर्माती हो
जहाँ पुष्प का प्रणय निवेदन, नटखट भौंरा लेकर सत्वर
नवल जूही से कह आता हो, गूढ़ संदेसा पहुंचता हो...  
***
समय-सागर रेत पर खेले नए नित खेल
और फिर बढ़ने लगी यूँ खूब आशा बेल
रच लिए संसार में कुछ स्वयं के प्रतिरूप
मोह के दृढ पास से अब बंधा बलिपशु यूप

जीव के संस्कार बनकर भावना उद्दाम
भाव बनकर खेलते मन-अजिर में निशि-याम
भाव बनकर कामना रचता वाह्य संसार
कामना से कर्म उत्प्रेरित हुआ साकार

कर्म के ही बीज बनते भोग के वट-वृक्ष
भोगता जिनको निरंतर जीव अगणित लक्ष
कर्म-भोगों से विरचते जीव के संस्कार
इसी वर्तुल में फंसा यह चिर-पथिक सौ बार




नहीं काटे कटा करतीं दुःख की काली निशायें
किन्तु सुख के वर्ष कैसे एक पल में बीत जाएँ
उदय होता जो दिवाकर विभव लिए प्रभात
नियति उसकी अस्त होना शीघ्र होनी रात

जग-उदधि की रेत पर बैठा घरौंदे पास
सोंचता जिज्ञासु मन के व्यर्थ सभी प्रयास
रेत पर किसके टिके हैं कर्म के पद चिन्ह?
सलिल-तल के लेख से क्या गती इनकी भिन्न?

***









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