रविवार, 14 नवंबर 2010

प्यारा बचपन


दादी की वे गीत कहानी

और कहाँ परिओं की रानी

दादा का वह राजा वेटा

बात बात पर रूठा बैठा

बीत गया वह भोला बचपन

उड़ा ले गया साथ लड़कपन

दिवास्वप्न वे परी कथाएँ

पंछी बन उड़ गयी कहाँ ये

बचपन! तेरे अधरों से हंसती है जन्नत

बचपन! प्रभुका तेज चमकता तेरे मुखपर

सारे रागों से मीठी यह तेरी बोली

प्रभु की मूरत सी यह तेरी सूरत भोली

प्यार सीखना है तो इन बच्चों से सीखो

क्षमा सीखना है तो इन बच्चों से सीखो

जाति धर्मं की कडुवाहट इनमे मत डारो

बचपन को बचपन ही रहने दो प्यारों

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

इस जगत के तीन कोने

इस जगत के तीन कोने

एक कोने तुम खड़े हो

दुसरे में हम खड़े हैं

तीसरे में और जाने कौन ?

हिम अनल का ताप है यह...

मौन का परिताप है यह ...

जलाती यह बर्फ थोड़ी आग देदो...

नीरवता का शोर असह्य, और तोड़ो मौन ?

तीसरे में और जाने कौन?

शेर के स्वागत में जाने आज क्यों

इस तरह आँखें बिछाए एक कपिला धेनु?

और सागर बन पपीहा मागता है बूंद

श्वेत घन इतरा रहा है यहाँ कारन कौन?

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

प्रेम की भाषा

जगत में बस एक भाषा

प्रेम की इक मौन भाषा॥

ये चरिंदे , वे परिंदे,

ईश के सारे ही वन्दे ...

धेनु गज खर शेर पशुजन ...

जानते सब यही भाषा .....

प्रेम की वह मधुर भाषा ॥

सरित सागर डगर अम्बर...

बाग़ घन वन विटप निर्झर ...

ये दिशाएँ ये हवाएं ............

बृक्ष से लिपटी लताएँ ...........

बोलतीं है एक भाषा ..........

प्रेम की इक मौन भाषा ॥

पुष्प की हर पाँखुरी भी

बांस की वह बांसुरी भी

और सारे मोर शुक पिक...

नित्य सारे भ्रमर दादुर.....

बोलते नित एक भाषा ....

प्रेम की वह कौन भाषा?

तम नहीं कुछ एक भ्रम है ...

अस्त रवि है तभी तम है...

अहम् के उस व्यूह में जब प्रेम खो जाता ...

जन्मती तब नई भाषा...

द्रोह की विद्वेष भाषा ....

प्रकृति की बस एक भाषा,

प्रेम की अनमोल भाषा ॥

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

आज मिली भारत की कविता मुझ को पुल पर लेटी...


भारत के सभ्य नागरिक के रूप में अपनी तथाकथित उच्च शिक्षा का भार सर पर उठाए हुए मै एक दिन लखनऊ विश्वविद्यालय जा रहा था.  तब मैंने हनुमान सेतु की पटरी पर लेटे हुए पचासों की तादात में मेहनतकशों को देखा था. कुछ लोग नासमझी से उन्हें भिखारी समझ लेते हैं. किसी भी राजनैतिक दल को इनकी परवाह नहीं है। सरकारें आती हैं चली जाती हैं. हर  पांच  साल  बाद  फिर कोई सियार शेर की खाल ओढ़ कर आ जाता है। नए वादे, नए इरादे. लेकिन इनके लिए नया कुछ भी नहीं होता. फिर पांच साल तक लाल हरी बत्ती वाली गाड़ियाँ निकलती रहती हैं उसी पुल से. ये गाड़ियाँ खुद न तो कुछ देखना चाहती हैं न सुनना. इनके साइरन और बत्तियां कहतीं हैं - हमें देखो, हमें सुनो. खैर ... एक दिन मैंने एक व्यक्ति को हनुमान सेतु पर सोते हुए देखा था. उसने सभी मुख्य राजनैतिक दलों से कुछ लिया था. आखिर वह वेचारा इन से क्या पा सकता था. उसने इनके पुराने बैनरों को ओढा बिछाया एवं पहना हुआ था. अगर मै एक चित्रकार होता तो एक चित्र बानाता . खैर इन चार लाइनो से से आप को संतोष करना पड़ेगा. मुश्किल यह है की इस वर्ग की पीड़ा को बताने के लिए कोई उपमाएं नहीं मिलतीं इसलिए कविता छोटी रह जाती है.

आज मिली भारत की कविता मुझ को पुल पर लेटी...
बीजेपी की चादर ओढ़े नीली लगी लंगोटी
समाजवाद की दो रंगी चादर पर लेटी थी वह
निश्चित इस कांग्रेस की छोटी बेटी थी वह ...

शनिवार, 28 अगस्त 2010

कारे कजरारे नैनो की सुन्दरता अब मै न लिखूंगा

कारे कजरारे नैनो की सुन्दरता अब मै न लिखूंगा
और सलोनी सूरत की अब बिलकुल चर्चा मै न करूँगा
पुष्प पांखुरी अब न दिखेंगी मुझको उनके अधर युगल में
और हजारों उपमाओ को अब न मै बर्बाद करूँगा

नहीं मिल रही मुह को रोटी, सोने को थोड़ी सी छाया
जिनके हिस्से में लगता है दुनिया का बिष ही बिष आया
जिनका शोषण होता रहता अनदेखे अनजान करों से
उनने इस भारत में अबतक आज़ादी का क्या सुख पाया ?

उनके जीवन के अन्धिआरे में शायद कुछ अर्थ पढूंगा
खादी वाले ठेकेदारों से उनकी कुछ बात करूँगा
जिनके बच्चो को खिचड़ी दे माल मलाई खा जाते हैं
उस अस्सी प्रतिशत भारत के अधिकारों की बात लिखूंगा



बुधवार, 25 अगस्त 2010

प्रिय अब तुम कुछ भी मत बोलो

नयन सिन्धु में उठने वाली हर उर्मी को पढ़ सकता हूँ।

अधरों के हर स्पंदन की परिभाषाएँ गढ़ सकता हूँ।

भाव शैल को शव्द तराजू में मत तोलो।

प्रिय अब तुम कुछ भी मत बोलो॥

शब्द एक झूंठा काशिद, जाने क्या बोले।

मन में 'हाँ' हो, फिर भी तो यह 'ना' ही बोले।

मौन एक सुन्दर भाषा , बस मुंह मत खोलो।

प्रिय अब तुम कुछ भी मत बोलो।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

चलो प्रेम का दीप जला लें

होंठों पर मुस्कान सजाकर,
बातों में कुछ शहद मिलाकर,
भरकर थोडा प्रेम दृगो में,
कुछ थोडा सा नेह दिखाकर.

सारे जग को मीत बना लें,
नई प्रेम की रीत चला दें,
नफरत का खंजर हम फेंके,
चलो प्रेम का दीप जला लें..

कल्पना के शेर

खुद बनाया भुत खुद डरने लगे...
बालकों की तरह कुछ करने लगे ...
कल हमी ने मौज में बोला था जो एक झूंठ
उसी को सच मान कर चलने लगे ।

कल्पना के शेर हमको नित्य खाते
और खुद साये हमारे हैं डराते
और जाने क्यों वो झूठे गडरिए से
झूंठ में ही 'भेडिया आया' बुलाते ...

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

काश तुम ...

काश तुम आकर जरा सा देख जाते ।
कौन है कैसे यहाँ बस देख जाते ।

दी हवाएं फूल उपवन ...
शुक पीकों का मधुर कुजन ...
और सारे सरित वन घन...
विचरने को बृहत् आँगन ...

कौन जो देखे सुने इनको...
आँख केवल देखती कुछ कागजो को
कान सुनते हुक्म या फिर चापलूसी
आज इस पागल बनिक ने बेच डाला खुद स्वयं को....

तितलिओं के आजकल सपने नहीं आते...
और अब न वान्धवो से बात कर पाते...
चाह कर भी आज खुलकर जी न पाते ...
और क्या बस सुबह आते शाम जाते...


जिज्ञासु समर्पण, कवि परिचय, प्रस्तावना एवं वंदना

जिज्ञासु    डॉ . बृजमोहन मिश्र   समर्पण   पूज्या माता स्वर्गीया मंगला देवी एवं पूज्य पिता श्री रामू लाल मिश्र को ...