शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

काश तुम ...

काश तुम आकर जरा सा देख जाते ।
कौन है कैसे यहाँ बस देख जाते ।

दी हवाएं फूल उपवन ...
शुक पीकों का मधुर कुजन ...
और सारे सरित वन घन...
विचरने को बृहत् आँगन ...

कौन जो देखे सुने इनको...
आँख केवल देखती कुछ कागजो को
कान सुनते हुक्म या फिर चापलूसी
आज इस पागल बनिक ने बेच डाला खुद स्वयं को....

तितलिओं के आजकल सपने नहीं आते...
और अब न वान्धवो से बात कर पाते...
चाह कर भी आज खुलकर जी न पाते ...
और क्या बस सुबह आते शाम जाते...


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