पञ्चमी वीथिका
आज सागर में अनोखी शान्ति कैसी है?
न पवन है, न लहर यह भ्रान्ति जैसी है
पवन से हो हीन नीचे हो गए सब पाल
नाव थी गतिहीन जैसी बहुत धीमी चाल
अग्नि बरसा रहा जैसे क्रोध में मार्तण्ड
प्राण संकट में पड़े थे ग्रीष्म अनल प्रचंड
सोचता जिज्ञासु कैसा बन गया दुर्योग
कंठ सूखा अधर प्यासे नहीं भोजन भोग
महासागर में पड़ी थी नाव हो असहाय
नहीं परिलक्षित कहीं भी सुगम युक्ति उपाय
नियति ने कैसा रचा यह अति भयानक खेल?
क्या परीक्षा में उलझ जिज्ञासु होगा फेल?
न पवन है, न लहर यह भ्रान्ति जैसी है
पवन से हो हीन नीचे हो गए सब पाल
नाव थी गतिहीन जैसी बहुत धीमी चाल
अग्नि बरसा रहा जैसे क्रोध में मार्तण्ड
प्राण संकट में पड़े थे ग्रीष्म अनल प्रचंड
सोचता जिज्ञासु कैसा बन गया दुर्योग
कंठ सूखा अधर प्यासे नहीं भोजन भोग
महासागर में पड़ी थी नाव हो असहाय
नहीं परिलक्षित कहीं भी सुगम युक्ति उपाय
नियति ने कैसा रचा यह अति भयानक खेल?
क्या परीक्षा में उलझ जिज्ञासु होगा फेल?
मोक्ष के साधन बनाते सुदृढ़ बंधन जाल
व्याधि पीड़ित को बने मिष्ठान भोजन काल
नियति तत्क्षण बना देती पुष्पमाला पास
व्यक्ति हो जाता स्वयं के बिम्ब का ही दास
बुद्धि कुंठित हो गयी, था धैर्य टूटा जा रहा
परम व्याकुल चेतना को नहीं धीरज आ रहा
नहीं दिखता था किनारा अम्बु का विस्तार था
चित्रलिखिता नाव जैसे सिंधु चित्राधार था
हो गया था अस्त दिनकर ताप थोड़ा शांत था
किन्तु नौका गति विहीना मुख पिपासा क्लांत था
फिर उदीची क्षितिज पर आकाश मेघावृत हुआ
कुछ क्षणों में ही प्रभंजन सिंधु पर आवृत हुआ
व्याधि पीड़ित को बने मिष्ठान भोजन काल
नियति तत्क्षण बना देती पुष्पमाला पास
व्यक्ति हो जाता स्वयं के बिम्ब का ही दास
बुद्धि कुंठित हो गयी, था धैर्य टूटा जा रहा
परम व्याकुल चेतना को नहीं धीरज आ रहा
नहीं दिखता था किनारा अम्बु का विस्तार था
चित्रलिखिता नाव जैसे सिंधु चित्राधार था
हो गया था अस्त दिनकर ताप थोड़ा शांत था
किन्तु नौका गति विहीना मुख पिपासा क्लांत था
फिर उदीची क्षितिज पर आकाश मेघावृत हुआ
कुछ क्षणों में ही प्रभंजन सिंधु पर आवृत हुआ
गरजते थे मेघ रुक रुक चमकतीं थी बिजलियाँ
हो रही थी बृष्टि चलने लगी भीषण आँधियाँ
खेलने था लगा कंदुक सिंधु के विस्तार में
अब प्रभंजन ठेलता था नाव उदधि अपार में
हो रही थी बृष्टि चलने लगी भीषण आँधियाँ
खेलने था लगा कंदुक सिंधु के विस्तार में
अब प्रभंजन ठेलता था नाव उदधि अपार में
व्यर्थ सभी प्रयास चलनी नहीं कोई युक्ति थी
आजमाकर देखली जिज्ञासु जितनी शक्ति थी
छोड़कर संघर्ष करके नियति के सम्मुख समर्पण
होगया उपराम आशा, वांक्षा सब हुए अर्पण
एक सीमा तक डराते शोक, दुःख, भय, नाश
किन्तु भय की अधिकता काटती भय का पाश
जीत भय जिज्ञासु देखे प्रकृति का सारा उपद्रव
संतुलन से हीन लगता प्रकृति का प्रत्येक अवयव
हर समस्या हमेशा सुलझती नहीं प्रयास से
व्याधियाँ मिटतीं नहीं सब पथ्य औषधि न्यास से
कुछ सुलझतीं स्वयं ही बस बने रहना शांत
धैर्य धारण कर प्रतीक्षा ही करे विक्रांत
आजमाकर देखली जिज्ञासु जितनी शक्ति थी
छोड़कर संघर्ष करके नियति के सम्मुख समर्पण
होगया उपराम आशा, वांक्षा सब हुए अर्पण
एक सीमा तक डराते शोक, दुःख, भय, नाश
किन्तु भय की अधिकता काटती भय का पाश
जीत भय जिज्ञासु देखे प्रकृति का सारा उपद्रव
संतुलन से हीन लगता प्रकृति का प्रत्येक अवयव
हर समस्या हमेशा सुलझती नहीं प्रयास से
व्याधियाँ मिटतीं नहीं सब पथ्य औषधि न्यास से
कुछ सुलझतीं स्वयं ही बस बने रहना शांत
धैर्य धारण कर प्रतीक्षा ही करे विक्रांत
कुछ प्रहर के बाद जब घन पवन अनुशासित हुवे
शांति सह-अस्तित्व के फिर नियम परिभाषित हुवे
फिर मलय की पवन बहती सुखद शीतल मंद थी
फिर जलधि में उर्मियाँ मृदु गुनगुनातीं छंद थीं
पुनः प्राची में दिवाकर स्वर्ण रथ आरूढ़ था
पुनः था गंभीर सागर भाव उसका गूढ़ था
जीर्ण नौका आ गयी आखिर पुलिन के पास
पुनः स्पंदित हुई जीवंतता की आस
शांति सह-अस्तित्व के फिर नियम परिभाषित हुवे
फिर मलय की पवन बहती सुखद शीतल मंद थी
फिर जलधि में उर्मियाँ मृदु गुनगुनातीं छंद थीं
पुनः प्राची में दिवाकर स्वर्ण रथ आरूढ़ था
पुनः था गंभीर सागर भाव उसका गूढ़ था
जीर्ण नौका आ गयी आखिर पुलिन के पास
पुनः स्पंदित हुई जीवंतता की आस
जिज्ञासु
का संकल्प गीत
जगत के
जंजाल सारे
व्यूह सा रचकर खड़े हों
परिस्थितियों के समंदर
पंथ में फैले पड़े हों
मार्ग रोके सहस गिरिवर
बिछे हों शत सहस कानन
प्रलय के बादल घिरे या
सिंह घेरे फाड़ आनन
धैर्य की तलवार लेकर
पथिक तू बढ़ता चलाचल
मौन की दृढ ढाल लेकर
पथिक तू बढ़ता चलाचल
व्यूह सा रचकर खड़े हों
परिस्थितियों के समंदर
पंथ में फैले पड़े हों
मार्ग रोके सहस गिरिवर
बिछे हों शत सहस कानन
प्रलय के बादल घिरे या
सिंह घेरे फाड़ आनन
धैर्य की तलवार लेकर
पथिक तू बढ़ता चलाचल
मौन की दृढ ढाल लेकर
पथिक तू बढ़ता चलाचल
पहुंचना
है तुझे सूरज
जहाँ से होता उदय है
लक्ष्य तेरा शुभ्र प्राची
जहाँ तम का पूर्ण लय है
तोड़ तम की घोर कारा
पथिक तू बढ़ता चला चल
बुद्धि मणि की रौशनी में
पथिक तू बढ़ता चला चल
जहाँ से होता उदय है
लक्ष्य तेरा शुभ्र प्राची
जहाँ तम का पूर्ण लय है
तोड़ तम की घोर कारा
पथिक तू बढ़ता चला चल
बुद्धि मणि की रौशनी में
पथिक तू बढ़ता चला चल
नहीं
रुकना मार्ग में जब
तुझे वनपरियां बुलाये
फस न जाना राग में जब
प्रेम का मृदु गीत गायें
देख मत उत्तर या दक्षिण
मार्ग पर सीधा चला चल
उदयगिरि के पार जाना
पथिक तू बढ़ता चला चल
तुझे वनपरियां बुलाये
फस न जाना राग में जब
प्रेम का मृदु गीत गायें
देख मत उत्तर या दक्षिण
मार्ग पर सीधा चला चल
उदयगिरि के पार जाना
पथिक तू बढ़ता चला चल
स्वर्ण
सिक्के खनखनाती
मिले मग में लोभ कुटिला
साथ में परिचारिकायें
अहम्, निर्दयता सुजटिला
लोकभोगों में उलझकर
महल उसके रुक न जाना
तुझे जाना दूर तू बढ़ता चला चल
दिन गया है सांझ आयी तू चला चल
मिले मग में लोभ कुटिला
साथ में परिचारिकायें
अहम्, निर्दयता सुजटिला
लोकभोगों में उलझकर
महल उसके रुक न जाना
तुझे जाना दूर तू बढ़ता चला चल
दिन गया है सांझ आयी तू चला चल
***
षष्ठी वीथिका
चल दिया जिज्ञासु सत्वर छोड़ नौका जीर्ण
खोजता निज पंथ गिरि-वन भूमि में विस्तीर्ण
लता कुंजो गह्वरों में नहीं पथ का भान था
चल दिया जिस ओर पंथी वहीं पथ निर्माण था
खोजता निज पंथ गिरि-वन भूमि में विस्तीर्ण
लता कुंजो गह्वरों में नहीं पथ का भान था
चल दिया जिस ओर पंथी वहीं पथ निर्माण था
छोड़ नौका चल दिया जिज्ञासु
अनिर्दिष्ट
नहीं कोई कामना लालसा मन में शिष्ट
मार्ग ले जाए जहाँ उसका वही गंतव्य
मिले जो प्रारब्धवस वह जठर आहुति हव्य
नहीं कोई कामना लालसा मन में शिष्ट
मार्ग ले जाए जहाँ उसका वही गंतव्य
मिले जो प्रारब्धवस वह जठर आहुति हव्य
सुख-सदन के वासियों को भय सताता कष्ट का
भोग-कीटों को थकाता संचरण पथ कष्ट का
किन्तु जो संघर्ष की पावक हमेशा ही तपे हैं
उन्हें गिरि-वन-पंथ कब भयभीत किंचित कर सकें हैं
लोभ के जो स्वर्ण शिखरों पर सुरक्षित चढ़ लिया है
कामिनी के नयन में जो कर्म गीता पढ़ लिया है
क्रोध के जो शव्द-भेदी बाण से भी है सुरक्षित
उसे क्या बाधा बने इन गिरि -वनों के पथ अरक्षित?
मोह के दलदलों को जो वीर योद्धा पार करते
उन्हें कोई गर्त खाई नदी नद कब रोंक सकते
नहीं जिसको डुबा पाये प्रियजनों की अश्रुधारा
क्या डुबायेगा उन्हें छिछला बहुत सागर बेचारा
माना कि गंतव्य दूर है
पंथ बिछे कंटक मरु गिरि हैं
निर्जन पथ घनघोर तिमिर है
पास नहीं गृह गाँव नगर है
किन्तु आज भी कोई तो है
तुमसे हर पल कहता जो है
"विजय पंथ के वीर पथिक तुम
बढ़े चलो तुम! बढे चलो तुम!
तुम्हे क्षितिज के पार पहुंचकर
उदयाचल के श्रृंग लाँघ कर
रवि से मिलने जाना होगा
उसे साथ ले आना होगा"
***
जिज्ञासु का यात्रा गीत
तो उड़े चलो..फिर बढ़े चलो
जब तक अनंत आकाश शेष
पंखों में बल आभास शेष
मन के कोने में आश शेष
थोड़ा सा भी विश्वास शेष
तो उड़े चलो.. फिर बढ़े चलो...
पंखों में बल आभास शेष
मन के कोने में आश शेष
थोड़ा सा भी विश्वास शेष
तो उड़े चलो.. फिर बढ़े चलो...
जाना है उड़कर वहाँ जहाँ
झरती झरनों से रस-धारा
खगकुल के कलरव से गुंजित
वह हरित-प्रफुल्लित वन सारा
कृशकाय नदी के पार कहीं
गुम्फित कुंजो के गह्वर में
कोकिला जहाँ बोला करती
मन की गांठें खोला करती
उस उपवन की अभिलाष शेष
थोड़ा सा भी विश्वास शेष
तो उड़े चलो... फिर बढ़े चलो....
झरती झरनों से रस-धारा
खगकुल के कलरव से गुंजित
वह हरित-प्रफुल्लित वन सारा
कृशकाय नदी के पार कहीं
गुम्फित कुंजो के गह्वर में
कोकिला जहाँ बोला करती
मन की गांठें खोला करती
उस उपवन की अभिलाष शेष
थोड़ा सा भी विश्वास शेष
तो उड़े चलो... फिर बढ़े चलो....
सरिता के दोनों कूल झुके
तरु फल-फूलों के भारों से
हरिणियां खेलतीं रहतीं हैं
उपवन की मस्त बहारों से
अस्ताचल के रवि में कैसा
सुन्दर सा रंग गुलाल शेष
बादल ने कैसा किया वेश
मन में भरकर कुछ नया जोश
पंखों के चौड़े खोल कोष
तो उड़े चलो... फिर बढ़े चलो....
तरु फल-फूलों के भारों से
हरिणियां खेलतीं रहतीं हैं
उपवन की मस्त बहारों से
अस्ताचल के रवि में कैसा
सुन्दर सा रंग गुलाल शेष
बादल ने कैसा किया वेश
मन में भरकर कुछ नया जोश
पंखों के चौड़े खोल कोष
तो उड़े चलो... फिर बढ़े चलो....
संध्या होते ही वनपरियां
उस रजत चांदनी में कैसी
सरिता की पुलिन-रेणुका में
खेलतीं नाचतीं मृदुल हास
नूपुर का कैसा मधुर रास
आनंद शिखर की निर्झरिणी
के कहीं जरा सा आस-पास
मन में नव-जीवन का विलास
आनंद-सरोवर के जल में तिरना है
तो फिर उड़े चलो.. फिर बढ़े चलो....
उस रजत चांदनी में कैसी
सरिता की पुलिन-रेणुका में
खेलतीं नाचतीं मृदुल हास
नूपुर का कैसा मधुर रास
आनंद शिखर की निर्झरिणी
के कहीं जरा सा आस-पास
मन में नव-जीवन का विलास
आनंद-सरोवर के जल में तिरना है
तो फिर उड़े चलो.. फिर बढ़े चलो....
***
गिरि-शिखर को लाँघ, नदियां तैर, वन को पार करते
जा रहा जिज्ञासु बढ़ता संकटों पर पांव धरते
जहाँ होती शाम सो जाता बिछाकर वह धरा
ओढ़ता आकाश निर्मल नखत तारों से भरा
वनांचल के मूल फल उसके सरस आहार थे
बृष्टि आतप तरुवरों के कुञ्ज ही आगार थे
मार्ग व्यय के हेतु उसके पास संचित धैर्य था
अंग-रक्षा हेतु उसका आत्मबल व शौर्य था
जा रहा जिज्ञासु बढ़ता संकटों पर पांव धरते
जहाँ होती शाम सो जाता बिछाकर वह धरा
ओढ़ता आकाश निर्मल नखत तारों से भरा
वनांचल के मूल फल उसके सरस आहार थे
बृष्टि आतप तरुवरों के कुञ्ज ही आगार थे
मार्ग व्यय के हेतु उसके पास संचित धैर्य था
अंग-रक्षा हेतु उसका आत्मबल व शौर्य था
***
जिज्ञासु का आत्मउद्बोधन
जिज्ञासु का आत्मउद्बोधन
हौंसले मजबूत चाहें कदम थक
चूर हों
सिर सगर्व तना हो चाहें लाख
हम मजबूर हों
परिस्थिति की आँधियाँ हमको
डिगा सकती नहीं
पहुचकर कर ही चैन लेंगे
लक्ष्य चाहें दूर हों
हाथ जोड़े कब किसी को संकटों
ने यहाँ छोड़ा?
आंसुओं पर दया खाकर काल ने
कब चक्र मोड़ा?
युद्ध प्रांगण में सिर्फ
विक्रम विजय का अर्थ होता
संकटों में जो समर्पण करे वह
सम्मान खोता
एक दो रण हार जाना हार
कहलाती नहीं है
तुम नहीं हारे अगर हिम्मत
अभी हारी नहीं है
भुजाओं में शक्ति, मन में
जीत का संकल्प जब तक
तब तलक कोई चुनौती वीर को
भारी नहीं है
प्रवल रवि को ढक लिया करतीं
हैं छोटी बदलियाँ
घड़ी भर को अंधेरों में डुबा
देतीं आँधिया
क्या कभी डरकर अंधेरों से
झुका है वीर दिनकर?
तोड़ तम की घोर कारा जगमगाता
चल दिया
***
जा रहा जिज्ञासु बढ़ता पंथ पर निर्वाध
जा रहा आनंद-वन को लिए पक्की साध
गए कुछ दिन बीत यों ही पंथ के संचरण में
सामने थी युगल राहें भ्रमित पथ के वरण में
सोंचने मन में लगा अब कौन पथ वरणीय है?
पहुँचना गंतव्य तक पथ कौन संचरणीय है?
एक पथ चिकना निरापद यात्रियों से पूर्ण था
दूसरा कुछ कष्टकारक कंटकों से पूर्ण था
मन कहे जिस ओर जाती भीड़ तुम भी चल पड़ो
किन्तु अंतःकरण कहता अकेले आगे बढ़ो
हो गयी दुबिधा बहुत जिज्ञासु अब फिर क्या करे?
चले वह जनहीन पथ या भीड़ के पथ पग धरे?
सोंचता जिज्ञासु मिल जाये अगर अब पथ-प्रदर्शक
पूंछ उससे मार्ग लूँ आनंद वन का सरल सम्यक
तभी देखा साधु जैसे वेश को धारण किये
साथ में जयघोष करते शिष्य-मण्डल को लिए
जा रहे हैं परम ज्ञानी इन्हें क्या अज्ञात होगा?
सुगम पथ आनंदवन का इन्हें निश्चित ज्ञात होगा
अति विनय से सिर झुकाकर जोड़ कर सम्मुख खड़ा
पूंछता भटका पथिक गुरु समझ विज्ञानी बड़ा
बोलता है पथ प्रदर्शक "मैं पथिक आनंदवन का
चलो तुम भी साथ मेरे ज्ञात मुझको पंथ वन का"
लगा करने विशद वर्णन उस मनोहर स्थान का
कल्पना से चित्र खींचा परम सुख व शान का
हो गया जिज्ञासु सुनकर शब्द ये मन में प्रफुल्लित
मिल गया हो लक्ष्य जैसे सुखद आशा हुई मुकुलित
भक्त मण्डल साथ में वह जा रहा जयघोष करता
मार्गदर्शक साथ में फिर व्यर्थ चिंता कौन करता?
हो गया निश्चिन्त जैसे अंक माँ के सो गया हो
पिता की अंगुली पकड़ आनंद मेले आ गया हो
परम सहृदय मित्र का सुखसाथ वन पथ पर मिला हो
हो गया निश्चिन्त जैसे कष्ट का सपना खुला हो
किन्तु कृमि की विष्ठा भी रजत जैसी है चमकती
पूर्ण विधु की चन्द्रिका में भव्य कैसी है दमकती
किन्तु प्रातःकाल जब भ्रमजाल सूरज तोड़ देता
अरे यह तो वीष्टा है तुरत पंथी छोड़ देता
कुछ समय के बाद वह पहुंचा अनोखे लोक
देख कर हर्षित हुआ मन ज्ञान ध्यान विलोक
सभी जन आदर्शवादी लिए व्रत सविशेष
करें ईस्वर नमन वहुबिधि किये लंबे केश
किन्तु जब जिज्ञासु घूमा धर्म के संसार को
था अचंभित देख कर उस लोक के व्यवहार को
रूप वाणी धर्म संयम त्याग सब व्यापार था
धर्म के बाज़ार में झूंठा सभी व्यवहार था
त्याग तप से हीन लेकिन केश लंबे वेश योगी
भक्ति सेवा रिक्त लेकिन श्री विभूषित परम भोगी
आत्मा से हीन जैसे शव किये श्रृंगार हो
धर्मिणी गृहणी बिना जैसे सजा घर द्वार हो
सुगम पथ आनंदवन का इन्हें निश्चित ज्ञात होगा
अति विनय से सिर झुकाकर जोड़ कर सम्मुख खड़ा
पूंछता भटका पथिक गुरु समझ विज्ञानी बड़ा
बोलता है पथ प्रदर्शक "मैं पथिक आनंदवन का
चलो तुम भी साथ मेरे ज्ञात मुझको पंथ वन का"
लगा करने विशद वर्णन उस मनोहर स्थान का
कल्पना से चित्र खींचा परम सुख व शान का
हो गया जिज्ञासु सुनकर शब्द ये मन में प्रफुल्लित
मिल गया हो लक्ष्य जैसे सुखद आशा हुई मुकुलित
भक्त मण्डल साथ में वह जा रहा जयघोष करता
मार्गदर्शक साथ में फिर व्यर्थ चिंता कौन करता?
हो गया निश्चिन्त जैसे अंक माँ के सो गया हो
पिता की अंगुली पकड़ आनंद मेले आ गया हो
परम सहृदय मित्र का सुखसाथ वन पथ पर मिला हो
हो गया निश्चिन्त जैसे कष्ट का सपना खुला हो
किन्तु कृमि की विष्ठा भी रजत जैसी है चमकती
पूर्ण विधु की चन्द्रिका में भव्य कैसी है दमकती
किन्तु प्रातःकाल जब भ्रमजाल सूरज तोड़ देता
अरे यह तो वीष्टा है तुरत पंथी छोड़ देता
कुछ समय के बाद वह पहुंचा अनोखे लोक
देख कर हर्षित हुआ मन ज्ञान ध्यान विलोक
सभी जन आदर्शवादी लिए व्रत सविशेष
करें ईस्वर नमन वहुबिधि किये लंबे केश
किन्तु जब जिज्ञासु घूमा धर्म के संसार को
था अचंभित देख कर उस लोक के व्यवहार को
रूप वाणी धर्म संयम त्याग सब व्यापार था
धर्म के बाज़ार में झूंठा सभी व्यवहार था
त्याग तप से हीन लेकिन केश लंबे वेश योगी
भक्ति सेवा रिक्त लेकिन श्री विभूषित परम भोगी
आत्मा से हीन जैसे शव किये श्रृंगार हो
धर्मिणी गृहणी बिना जैसे सजा घर द्वार हो
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