सोमवार, 9 मार्च 2020

जिज्ञासु तृतीया एवं चतुर्थी वीथिका


तृतीया वीथिका 
कर्म में उलझा हुआ जिज्ञासु जग में व्यस्त
शोक, चिंता, भय, पराजय, अभावों से त्रस्त
नियति निर्दय परीक्षक के जटिल प्रश्न अनेक
खोजने थे सभी उत्तर नहीं तजना एक

लाख युक्ति प्रयास से हो एक पूरा काम
तभी उसको दिये जाते अन्य कार्य तमाम
बन गया जिज्ञासु यों नव उरुक-यूतक जिन्न
दौड़ता फिरता रहे स्वेदित, प्रताड़ित, खिन्न

लाल कर आँखे दिखाता, हाँथ जोड़े गिड़गिड़ाता
युक्ति, श्रम, चालाकियों से चार पैसे जोड़ लाता
कभी जलता द्वेष ईर्ष्या की हुताशन मंद में
कभी डूबे शोक चिंता के गहनतम सिंधु में

कभी वक सा खड़ा रहता वह लगाये ध्यान
काक जैसी चेष्टा में कभी झोंके प्राण
जागता, गर्जता, रोता ग्राम-सिंहो सा कभी
उछलता शाखा-मृगों सा लगा कार्यों में सभी

गिने शायद जा सके आकाश के तारे सभी
आदमी की हसरतें गिन नहीं हैं सकतीं कभी
मन स्वचालित यंत्र सा प्रत्येक क्षण करता चला
बना करतीं हसरतें हर नए दिन पर नौ बला

दीन मानव बना नित नवाकांक्षा का दास
किया करता नित्य कितने सुकृत विकृत प्रयास
गृह-रहित को चाहिए छोटा भवन आवास
भूमि जिसको मिल गई वह चाहता आकाश

अगर खग को मिल गया भरपेट भोजन आज
उसे फिर चिंता नहीं  कि  भरे वह परवाज़
किन्तु नर का परिग्रह बढ़ता चला जाता सदा
पेट तक सीमित नहीं है विकट मानव की क्षुधा

योग जप व्रत हवन पूजा दान सुकृत अनेक
कर रहा जिज्ञासु लेकिन साध केवल एक
लोक भोगों का लगादे हे प्रभू अम्बार!
मै अकिंचन तू विधाता पड़ा तेरे द्वार!

मद्य यद्यपि नष्ट करती स्वास्थ्य बुद्धि विवेक
किन्तु मद्यप माँगता है और कूपी एक
बुझाई जा सके नर की जो क्षुधा उदरस्थ
किन्तु बढ़ती रहा करती परम क्षुधा मनस्थ

इंद्रियों का विषय भोगों से हुआ संपर्क
उसी को सुख मान बैठा सब भिड़ाकर तर्क
किन्तु आखिर सभी इंद्रिय-सुख क्षणिक अनित्य
शांति ही सुखमूल है जो रहे अविचल नित्य
जिज्ञासु का आत्म-चिंतन 
 
खुशियों की मृग तृष्णा लेकर
भाग रहा है जीव निरंतर
खोज रहा कस्तूरी वन में
भटक रहा है स्वत्व भूलकर


जोड़ जाड़ के मिट्टी कूड़ा
बांधे भारी एक गठरिया
चला जा रहा ढोये उसको
सिर पर रक्खे कर्म मुटरिया
अभिलाषा के कीड़े कितने
अपने सिर में पाल रखे हैं
चिंताओं के कितने फंदे
स्वयं गले में डाल रखे हैं
अहम लोभ की तलबारों से
सब सम्बन्ध क़त्ल कर डाले
कुटिल क्रोध की दावानल से
सुख के कुञ्ज भष्म कर डाले
शुद्ध स्वर्ण सा जगमग तन था
बच्चों जैसा पावन मन था
तितली में तक अनुपम सुख था
सभी तरफ तो अपनापन था
अब नकली मुस्कान सजाये
दंभ द्वेष मन में दफनाये
ढूंढ रहा है सच्चा साथी
मित्रों जैसा वेश बनाये
अगर अभी भी जीव फेंक दे
जंजालों की जटिल गठरिया
अहम लोभ को त्याग बुझा दे
क्रोध अनल की हर फुलझड़िया
फिर से प्रेम मेघ बरसेंगे
सुख का उपवन खिल जायेगा
जीवन की यात्रा में फिर से
मानव सच्चा सुख पायेगा
***




यह गृहस्थी है किसी दरबार जैसा नृत्य
नृत्य होता रहे जब तक साज बजते, सत्य!
पैर थककर चूर हों पर बंधे घुंघरू रहें बजते
मूर्छना के साथ बस यूँ ही बने रहना थिरकते

राग में क्रंदन छिपाये, अधर को स्मित बनाये
लाख हत-आकांक्षाओं की सदा अर्थी उठाये
थक गया जिज्ञासु चलते कहाँ है गंतव्य
बैठकर वट छाहँ सोंचे जो लगे ध्यातव्य

बहुत पीली मदिर-नयनो से मधुर हाला
अब उसे रुचता नहीं था भोग का प्याला
लोक के व्यापार सारे हुए कर्षण हीन
चल दिया हो मुक्त परम स्वछंद राग विहीन
झुक गए कंधे हुआ जा रहा यौवन क्षीण
अंग ढीले हो चले सब तेज बल से हीन
फेंककर के पोटली सिर पर रखा जो भार
चल दिया वह जगत से उपराम दरिया पार

सूर्य पश्चिम व्योम में अब दिवस घंटे चंद
लौटने अब लगे देखो नीड़ को खग वृन्द
किन्तु क्या जिज्ञासु को है हुआ बहुत विलम्ब?
नाव अब अज्ञात पथ पर चल पड़ी अविलंब

***

चतुर्थी वीथिका
ज्यों चढ़ा जिज्ञासु नौका त्याग कर सब भार
चल पड़ी नौका उसी क्षण बिन किसी पतवार
अस्त होता सूर्य बरसा रहा जैसे स्वर्ण
सिंधु-तल जगमग हुआ उर्मियाँ कंचन वर्ण
 
क्रौंच पक्षी हंस सारस लगे गाने राग
प्रकृति जैसे खेलती हो आज मिलकर फाग
नगर के कोलाहलों को कहीं पीछे छोड़ आया
जा रहा जिज्ञासु जैसे कठिन कारा तोड़ आया

मलयगिरि की गोद से लेकर मधुर मकरंद
पवन के झोंके बहे अति मधुर शीतल मंद
जा रही नौका चली अति स्निग्ध मंथर चाल
हंसिनी सी सौम्य सुन्दर भर पवन निज पाल

रजत कंचन सी चमकती अति मनोहर मीन
उछलतीं थीं, चमकतीं थीं, खेलतीं थीं लीन
बहुत पीछे रह गया था वृत्ति का संसार
जा रहा जिज्ञासु ले निवृत्ति का आधार

जब उदीची में किया रवि ने सिंहासन रिक्त
तभी प्राची में हुआ शशि व्योम में अभिषिक्त
सितारों का बहुत भारी था लगा दरबार
मध्य बैठे मुस्कुराते सभा के सरदार


हंसिनी सी तिर रही वह स्वेत खोले पाल
जा रही उन्मुक्त बढ़ती मंद मंथर चाल
सिंधु में थी जगमगाती पूर्ण विधु की कान्ति
भर रही जिज्ञासु मन में वह अलौकिक शांति

मन सरोवर भर गया था शुद्धतम अनुराग
हो निरामय लगा पंथी गुनगुनाने राग
छू गयी मलयज पवन की एक सुखद तरंग
गा रहा जिज्ञासु नौका में प्रफुल्लित अंग
जिज्ञासु का प्रयाण गीत
लेचल मुझको वहाँ जहाँ पर
बहती हो कलकल निर्झरिणी
उन गिरि शिखरों के अंतस से
जिन पर झुकी मेघ मालाएं...
दूर कहीं पर झील किनारे
बसे गडरियों के पुरवे से
मधुर मधुर बंसी की वह धुन
कानो में रस घोल रही हो....
अस्ताचल की गहन गोद से
अरुणिम बदली के पीछे छुप
सूरज की वह सुखद लालिमा
वन प्रदेश में फ़ैल रही हो....
ऊँचे देवदार के वन के
बीच कहीं पर झील किनारे
(छोटे से आश्रम में सुंदर)
मृग, मयूर के सुखद साथ में
अपना सुखमय सा जीवन हो....
खग-कलरव की मुखर प्रभाती
सुनकर निद्रा त्याग चल पड़े
प्रातः स्नान ध्यान करने को
कर में सुलघु कमंडल थामे...
कहीं ठहरकर पलभर रूककर
गिने रंग तितली के पर के
कही बैठ कर सुने घडी भर
जल प्रपात का राग ठहर कर....
***
सुवह जव खोले नयन प्राची दिशा में अंशुमाली
हो रहे थे उदय जल में चमकती थी अजब लाली
पास में ही दिख रहा था एक सुन्दर द्वीप
चमकता अलकापुरी सा भव्य अद्भुत द्वीप

स्वर्ण नगरी नाम जिसका स्वर्ण भवन अनेक
पुष्प उपवन गिरि सरोवर खग-मृगादि अनेक
सभी पुरजन स्वस्थ सुन्दर शांति-प्रिय गंभीर
क्यों हो विश्राम कुछ दिन इसी पुर के तीर

भ्रमण दर्शन हेतु जब जिज्ञासु कंचनपुर गया
देखकर सौंदर्य पुर का परम विस्मित रह गया
बने थे ऊँचे भवन सब स्वर्ण मंडप युक्त
जगमगाते थे कलश गुम्बदों पर ध्वजयुक्त

चौक चैराहे सजे थे बिबिध सुन्दर मूर्तियों से
स्वच्छ गलियाँ थीं सुनिर्मित संगमरमर पट्टियों से
विविध खग मृग पुष्प तरुओं से भरे उद्यान थे
नील कमलों के सरोवर हंस क्रीडास्थान थे

वाटिकाओं में पिकों की केकली का संग था
पुष्प गुल्मों पर विचरतीं तितलियों का रंग था
सरस कदली आम्र दाड़िम जम्बु विविधि प्रकार के
झुके रहते वृक्ष वनके पुष्प फल के भार से

आह है रमणीय कितना लोक यह अभिराम
यहीं सुख से रहूं सुखकर सुभग कितना धाम
पुष्प-गुंठित कुञ्ज में करने लगा विश्राम
सुखद मलयज पवन उसको दे रही आराम

सोंचता जिज्ञासु मेरा लक्ष्य मुझको मिल गया
परम सुख के लोक कंचनधाम आखिर गया
अब यहीं पर दिवस सुख से चैन से बीते निशा
चैन की बंसी बजेगी नहीं अब चिंता तृषा

देखता जिज्ञासु सम्मुख स्वर्ण सिक्के खनखनाती
विविधि भूषण से अलंकृत खड़ी है वह खिलखिलातीं
साथ में सखियाँ खड़ीं अभिमानिनी कुलिशहृदया
नयन-सैनो से बुलाती स्मिता धनदेव तनया


"चलो आगंतुक हमारे भवन में विश्राम करलो
पुष्प-इत्रों से सुवासित अम्बु में स्नान करलो
स्वर्ण थालों में चलो तुमको खिलाऊँ विविध व्यंजन
चलो अब मेरे अतिथि तुम मत सहो आतप प्रभंजन"

फस गया यूँ लोभ कुटिला के सुनहरे जाल में
खो दिया स्वातंत्र्य फस कर मोहिनी की चाल में
लगा निशि-वासर बिताने अर्थ के उद्योग में
लगा रहता हर समय वह स्वर्ण-संग्रह योग में

हर समय चिंता सताए आय व्यय व्यापार की
स्वर्ण-संग्रह बढ़ाने की और कोषागार की
बहुत ही ऊँची दीवारें कुलिश-दृढ सब द्वार थे
झरोखे भी बंद करके कैद में सरदार थे

नहीं जा सकते अकेले सुरक्षा का प्रश्न था
हर समय ही प्राण संकट में नहीं अब जश्न था
हर समय चिंता भयातुर बंधे रहते पाश में
लगे रहते जोड़ने में विपुल धन की आश में

सत्य भाषण छोड़ अनृत के परम साधक हुवे
अहम निर्दयता सुसेवित पीन धन-वाहक हुवे
भोग देते रोग इनको निशि-दिवस सुखहीन थे
बने वाहन चंचला के तृषित स्वेदित दीन थे

हो गए जिज्ञासु इतने व्यस्त कंचन साधना में
दिवस महीने वर्ष हुवे व्यतीत सुख की कल्पना में
यथा घृत की आहुती है ढ़ाती अग्नी निरंतर
तृप्त होता नहीं बढ़ता लाभ से नित लोभ दुष्कर

ज्ञान जिज्ञासा कहीं पर हो गयी थी लुप्त सी
उर्ध्ववाही भावनाएं हो गईं थीं सुप्त सी
दया, करुणा, दान, सेवाभाव अब शेष थे
ह्रदय निर्दयता, कुटिलता, अहम ही अब शेष थे

स्वर्ण के पर्यंक पर जिज्ञासु था विश्राम कर
भय खड़ा था लिए भाला कक्ष के दृढ द्वार पर
अर्थचिंता बही लेकर खड़ी दक्षिण पार्श्व में
शीषपीड़ा मुँह बनाकर खड़ी पीछे पार्श्व में

था खड़ा संदेह बाएं वस्त्र में खंजर छुपाये
पुष्प लेकर खड़ा सम्मुख चाटु बत्तीसी दिखाये
कई पिछली रात्रियों से नींद उससे दूर थी
भीति चिंता वेदना जिज्ञासु को भरपूर थी

स्वर्णपुर के श्रेष्ठियों का इसी जैसा हाल था
स्वर्ण के अभिशाप से पीड़ित सदा बेहाल था
शांति सुख सौंदर्य का मुख पर नहीं लवलेश था
विकृत भावों से भरा मुख राग पोते शेष था

चल रहे थे सभी ऐसे भार जैसे ढो रहे हों
नहीं थी मुस्कान अधरों पर कि जैसे रो रहे हो
कहीं पर भी नृत्य की पायल नहीं थी बज रही
कहीं पर नगर में आनंद महफ़िल सज रही

किसी कोने से नहीं गूंजती खुशियां खिलखिलातीं
कहीं पर बांसुरी कल कंठ से थी सुर मिलाती
डरे से सहमे हुवे से दासियों की गोद में
पड़े थे शिशु म्लान जैसे रिक्त जीवन-मोद से

हर कोई था व्यस्त निज धन सम्पदा का दास सा
हर गले में पड़ा हो धन का अलक्षित पाश सा
हर कोई हर पल हमेशा आय व्यय में व्यस्त था
लोभ लालच के भयानक रोग से वह ग्रस्त था

ना दिवस को चैन ही रात्रि को विश्राम था
रात को चिंता हमेशा दिवस को सब काम था
पेय मृदु भोजन रसीले भोग विविधि प्रकार के
स्वर्ण नगरी वासियों के लिए सब बेकार थे

प्रकति का सौंदर्य खग कुल का परम प्रिय गान
इन्हें सुख देती नहीं थी पुष्प की मुस्कान
स्वर्ण के अभिशाप से पीड़ित हमेशा दीन
जी रहे थे भार जीवन बने धन-पशु पीन

चल दिया जिज्ञासु सत्वर छोड़कर वह लोक
स्वर्ण भोगों से भरा था किंतु प्लावित शोक
"
मुझे लेचल नाव मेरी जहाँ हो आनंद
जी सकूँ दुःखहीन जीवन मोद में सानंद"

***

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