जिज्ञासु
डॉ. बृजमोहन मिश्र
समर्पण
पूज्या माता स्वर्गीया मंगला देवी एवं पूज्य पिता श्री रामू लाल मिश्र
को सप्रणाम समर्पित
कवि परिचय
डॉ. बृजमोहन मिश्र का जन्म बीस अगस्त सन उन्नीस सौ उन्नासी को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जनपद के हरीपुर ग्राम में हुआ था | इनकी माता श्रीमती मंगला देवी बहुत मनस्विनी तथा मेधावती थीं तथा इनके पिता श्री रामू लाल मिश्र जी ईश्वरोपासक है| कृषक परिवार में जन्मे बालक बृजमोहन की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई| माता-पिता के उच्च धार्मिक संस्कारों के बीच बड़े होकर बृजमोहन ने उच्च शिक्षा प्राप्त की | आपने महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय से अंग्रेजी तथा संस्कृत में परास्नातक की उपाधियाँ प्राप्त कीं | अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय से अंग्रेजी भाषाविज्ञान में एमफिल तथा पीएचडी की उपाधियाँ अर्जित कर इसी विश्वविद्यालय में सेवायोजित हो गए|
सम्प्रति डॉ बृजमोहन मिश्र जी अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के लखनऊ परिषर में भाषाविज्ञान तथा समकालीन अंग्रेजी विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं| वेदों, उपनिषदों तथा अन्य सद्साहित्य के सुधी अध्येता होने के नाते आपकी मानव के जीवन-दर्शन में सहज रूचि है | प्रस्तुत रचना “जिज्ञासु” मानव के जीवन-दर्शन पर आधारित एक सरस काव्यग्रन्थ है |
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प्रस्तावना
मानव के सांसारिक एवं आध्यात्मिक विकास के मूल में बसी है जिज्ञासा। जिज्ञासु नित्य नया ज्ञान, नया अनुभव प्राप्त करना चाहता है। उसके मनमे निरंतर उठने वाले प्रश्न उसे घटनाओं एवं परिस्थितियों के तार्किक अनुशीलन करने को प्रेरित करते रहते हैं।
ऐसा ही एक जिज्ञासु इस काव्य-ग्रन्थ का केंद्रीय पात्र है । यह
ग्रन्थ एक
रूपक काव्य
है जिसमे
स्तरीय अर्थ
गौड़ तथा
गूढ़ार्थ प्रधान
है | जिज्ञासु
की आनंदवन
की खोज
एक भौतिक
यात्रा नहीं
है वल्कि
यह एक
आध्यात्मिक यात्रा
है |
इस काव्य ग्रंथ में आठ वीथिकाएं हैं | प्रथम वीथिका में जिज्ञासु के जन्म, शैशव तथा बाल्यकाल का वर्णन किया गया है| द्वितीय वीथिका में जिज्ञासु युवावस्था में प्रवेश करता है । प्रकृति उसमे यौवनोचित चंचलता का संचार कर देती है । जिज्ञासु रूप-पास में आबद्ध हो रस-लोलुप भ्रमर की भांति कामिनी के कमनीय कलेवर से आलिंगित रहता है । संसार में प्रवृत्त होते हुवे भी उसके हृदयाकाश में नियति के आवाहन की अनुगूँज होती रहती है । तृतीय वीथिका में जिज्ञासु के गृहस्थ जीवन का वर्णन है | गृहस्थ एक अथक नर्तक की भांति नियति के आदेशों पर निरंतर नाचता रहता है | उसके कार्य कभी भी ख़त्म नहीं होते और वह अहर्निशि संसार में ही लगा रहता है |
चतुर्थ वीथिका में जिज्ञासु गृहस्थ जीवन को त्यागकर आत्मान्वेषण के लिए निकल पड़ता है | वह अथाह धन एवं लोकभोगों की नगरी कंचनपुर पहुँच जाता है| नगर की शोभा से आकृष्ट हो जिज्ञासु उसी नगर में निवास करने लगता है| उसका समस्त समय कंचन-साधना में व्यय होने लगता है | अंततः उसे ज्ञात होता है की धन में सच्चा सुख नहीं है| वह कंचनपुर को त्यागकर आनंदवन की खोज में निकल पड़ता है| जिज्ञासु अनुभव कर लेता है की धन का त्याग सरल नहीं होता| सांसारिक विलासिताओं का अभ्यस्त शरीर धन का त्याग कर अत्यधिक कष्ट का अनुभव करता है | पंचम वीथिका में कंचनपुर से जिज्ञासु का प्रयाण एवं यात्रा में आने वाली विपत्तियों का वर्णन है | धैर्य समस्त आपदाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है |
षष्टम वीथिका में जिज्ञासु की आनंदवन अन्वेषण यात्रा का वर्णन है | इन्द्रियनिग्रह, धैर्य, तथा निष्प्रह संघर्ष प्रायः मोक्षदायी होता है | जिज्ञासु को एक क्षद्मगुरु मिल जाता है जो उसे आनंदवन के मार्ग से पथच्युत कर भोगनगरी महापुर ले जाता है |
सप्तम वीथिका में भोगनगरी महापुर का वर्णन तथा जिज्ञासु के राज्यभोग का वर्णन है| ऐन्द्रिक सुखों में खोकर जिज्ञासु अपने आत्मिक ओज एवं तेज को खो देता है | उसका रूप विकृत हो जाता है | धीरे-धीरे जिज्ञासु दया, करुणा, तथा ज्ञान से रहित हो क्रोध, अहंकार तथा इन्द्रियसुख का दास हो जाता है | महापुर के राजवैभव की निरर्थकता का अनुभव करलेने पर जिज्ञासु पुनः चिरस्थायी आनंद की खोज में निकल पड़ता है | अष्टम वीथिका में वह अपनी खोज में सफल हो जाता है | वह एक आश्रम प्रदेश में पहुँचता है जहाँ सभी जन प्रकृति के सानिध्य में सुखपूर्वक रहते हैं | उसे विश्वेश्वर विराट का साक्षात्कार होता है और जिज्ञासु द्वैतभाव से मुक्त हो "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" की स्थिति को प्राप्त कर लेता है |
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माँ सरस्वती की मानस पूजा
हे स्वेताम्बरि ज्ञान प्रदायिनि
हंस विमान पे बैठी चली आ
ध्यान करे सुत सेवक दीन
तू पुत्र पे प्रेम लुटाती चली आ
ध्यान करे सुत सेवक दीन
तू पुत्र पे प्रेम लुटाती चली आ
हे कमलासिनि कवि हृदवासिनि
मम हृदयासन आनि विराजो
दादुरकंठ को आशिष दे
जगमातु सुहासिनि आसन राजो
श्रद्धा सनेह के स्वच्छ तड़ाग के
वारि से अम्ब के पाद पखारूँ
ओढ़नी मागि के मीरा महान कि
पोंछि कमलपद वारि पखारूँ
तुलसी के मानस सर वारि से
मंगलकारिणि हाँथ पखारो
सूखी पड़ी मन की चदरी
जल पोंछि के तोषिणि दोष निबारो
निज मन हंस को प्रेरि हे देवि
मंगायो है वारि भागीरथि बारो
हे तमशोषिणि किल्विष मोचिनि
आचमन करि सेवा स्वीकारो
कृष्ण के रास को मीठो मधु
दधि क्षीर जो बालक कान्ह चुरायो
ले घृत भगवद्गीता के ज्ञान को
गोपिन नयनन नीर मिलायो
स्नान करो मम मातु कृपा करि
पंचामृत श्रद्धा से बनायो
मम संकल्प के स्वर्ण घटस्थ
सलिल अबगाहिये पुत्र बुलायो
छंद प्रबंध के तार खची
रूपक उपमा मुक्ता मणि वारी
भावित सुबसंत के सौरभ से
स्वीकारो हे मात चिनांशुक सारी
भाव के तार पिरोये हुए माँ
शब्दन मुक्ता माल बनाऊं
स्नेह की दृष्टि से देखि दे मातु
सुवासित भाव के हार चढ़ाऊँ
हे मन हंस तुरंत चुनो
शुभ पुष्प सुगंध वसंत खिलाये
निज कर सींचि जो शकुंतला
जिन कुंजन प्रीती के गीत सुनाये
कविगुरु काव्योद्यान के पुष्प
की अंजुलि मात के शीष चढ़ाऊँ
लइ मकरंद सुपूजित सीय कि
वाटिका से शुभ धुप सुँघाऊं
सृद्धा को दीप भक्तिघृत पूरित
बाती समर्पण की सुचि डारौं
गीता के ज्ञान से प्रज्वलित ज्योति
दिखाऊं कृपाकरि माँ स्वीकारो
हे मन मातु के भोग के हेतु
सुव्यंजन कंचन थाल सजाइये
षटरस के नैवेद्य परोसि के
अंजलि बाँधि सभक्ति बुलाइए
हे रसेश्वरी तोषिणि पोषिणि
नैवेद्य निवेदित भोग लगाइये
सुरसरि जल करिये मृदु पान
बनारस को ताम्बूल
चबाइए
हे जगदम्ब करूँ करजोरि
प्रदक्षिण बारंबार हिये से
मन ही मन परनाम करूँ माँ
सरनागत साष्टांग किये से
अंजलिपूरि सुगन्धित पुष्प
जो नंदनकानन से मन लायो
मानसपूजा में सो सप्रेम
सो वीणापाणि को आनि चढ़ायो
हे हृदवासिनि ज्ञान प्रकाशिनि
मांगू क्षमा यदि त्रुटि कछु होवे
ज्ञान को हाँथ धरो मम शीश
तो शब्द को अर्थ प्रकाशित होवे
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