निष्प्राण व्याघ्र के चरमो पर, शुख आसन में बैठे तो क्या ।
ले गयी बहा कर जिधर धार, उस तरफ गए तो नाविक क्या ।
केवल सांसो में जीवन को, हर कोई तो जी लेता है ...
संघर्ष और विजयों में गर , जीवन न जिया तो जीवन क्या ।
जीवन वह जीवन है जिसमे गिनते बाघों को गिरा दांत..
जीवन वह जीवन है जिसमे संघर्ष किया हो दिवस रात ॥
जीवन में गर जीवन न हो, स्थिरता हो, निश्चितता हो ...
ऐसे जीवन को जी लेने में नहीं कहीं कुछ ख़ास बात ।
jo sangharshon me jeeta hai, इतिहास उन्ही को लिखता है।
शिवराज, सिकंदर, बीर सुभाषों की ही चर्चा करता है ।
जाने कितने ही भीरु पलायन करते मारे जाते हैं...
जीवन वह जीवन होता है, जो जीते जी ना मरता है॥
सोमवार, 3 जनवरी 2011
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जिज्ञासु समर्पण, कवि परिचय, प्रस्तावना एवं वंदना
जिज्ञासु डॉ . बृजमोहन मिश्र समर्पण पूज्या माता स्वर्गीया मंगला देवी एवं पूज्य पिता श्री रामू लाल मिश्र को ...
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