भारत के सभ्य नागरिक के रूप में अपनी तथाकथित उच्च शिक्षा का भार सर पर उठाए हुए मै एक दिन लखनऊ विश्वविद्यालय जा रहा था. तब मैंने हनुमान सेतु की पटरी पर लेटे हुए पचासों की तादात में मेहनतकशों को देखा था. कुछ लोग नासमझी से उन्हें भिखारी समझ लेते हैं. किसी भी राजनैतिक दल को इनकी परवाह नहीं है। सरकारें आती हैं चली जाती हैं. हर पांच साल बाद फिर कोई सियार शेर की खाल ओढ़ कर आ जाता है। नए वादे, नए इरादे. लेकिन इनके लिए नया कुछ भी नहीं होता. फिर पांच साल तक लाल हरी बत्ती वाली गाड़ियाँ निकलती रहती हैं उसी पुल से. ये गाड़ियाँ खुद न तो कुछ देखना चाहती हैं न सुनना. इनके साइरन और बत्तियां कहतीं हैं - हमें देखो, हमें सुनो. खैर ... एक दिन मैंने एक व्यक्ति को हनुमान सेतु पर सोते हुए देखा था. उसने सभी मुख्य राजनैतिक दलों से कुछ लिया था. आखिर वह वेचारा इन से क्या पा सकता था. उसने इनके पुराने बैनरों को ओढा बिछाया एवं पहना हुआ था. अगर मै एक चित्रकार होता तो एक चित्र बानाता . खैर इन चार लाइनो से से आप को संतोष करना पड़ेगा. मुश्किल यह है की इस वर्ग की पीड़ा को बताने के लिए कोई उपमाएं नहीं मिलतीं इसलिए कविता छोटी रह जाती है.
आज मिली भारत की कविता मुझ को पुल पर लेटी...
बीजेपी की चादर ओढ़े नीली लगी लंगोटी
समाजवाद की दो रंगी चादर पर लेटी थी वह
निश्चित इस कांग्रेस की छोटी बेटी थी वह ...