मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

काम धाम ने फुर्सत छीनी

काम  धाम  ने  फुर्सत  छीनी ,
समय  चोर  ने  छीने  सपने ,
यहीं  कहीं  पर   कल खोये  थे ,
लोरी  थपकी  के  सुख  अपने ...


इसी  हाट  में  कल  बेंची थी
मैंने  अपनी  हर  अभिलाषा ,
खूंटी  कौड़ी  मोल  बिकाई
मेरे  अरमानो  की  आशा ...


घुटन  भरे  कमरे  की  खातिर
बेचीं  शीतल  तरुवर  छाया,
कुछ  कागज़  के  टुकड़ो  में  बस
दिवा-स्वप्ना  गिरवीं  कर  आया...


लेकिन  कोई  छीन न  पाया
उन  अदभुत  अनमोल  क्षणों  को,
उन  यादों  को , उन  वादों  को
उस  स्मृति  के  छिन्न कणों को ...

 

जिज्ञासु समर्पण, कवि परिचय, प्रस्तावना एवं वंदना

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