शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

प्रेम की भाषा

जगत में बस एक भाषा

प्रेम की इक मौन भाषा॥

ये चरिंदे , वे परिंदे,

ईश के सारे ही वन्दे ...

धेनु गज खर शेर पशुजन ...

जानते सब यही भाषा .....

प्रेम की वह मधुर भाषा ॥

सरित सागर डगर अम्बर...

बाग़ घन वन विटप निर्झर ...

ये दिशाएँ ये हवाएं ............

बृक्ष से लिपटी लताएँ ...........

बोलतीं है एक भाषा ..........

प्रेम की इक मौन भाषा ॥

पुष्प की हर पाँखुरी भी

बांस की वह बांसुरी भी

और सारे मोर शुक पिक...

नित्य सारे भ्रमर दादुर.....

बोलते नित एक भाषा ....

प्रेम की वह कौन भाषा?

तम नहीं कुछ एक भ्रम है ...

अस्त रवि है तभी तम है...

अहम् के उस व्यूह में जब प्रेम खो जाता ...

जन्मती तब नई भाषा...

द्रोह की विद्वेष भाषा ....

प्रकृति की बस एक भाषा,

प्रेम की अनमोल भाषा ॥

जिज्ञासु समर्पण, कवि परिचय, प्रस्तावना एवं वंदना

जिज्ञासु    डॉ . बृजमोहन मिश्र   समर्पण   पूज्या माता स्वर्गीया मंगला देवी एवं पूज्य पिता श्री रामू लाल मिश्र को ...